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                                                   हाँ वो गंगा ही था? 

हाँ वो गंगा ही था?

 

मैं जब भी अपने सड़क से गुजरता, मेरी दृष्टि अनायास ही मोड़ पर बैठे मोची पर पड़ जाती, दुबली,पतली काया वाली शरीर, सर पर के  सफेद झड़े  झड़े बाल, मूहं पर चेचक का दाग, रंग काला सा, तन पर केवल एक फटी  फटी सी लिपटी हुई धोती जो वह लूंगी कितरह लपेटे रहता था I सर पर तपती धूप से बचने के लिए अपना गमछा किसी तरह वहां पर एक छोटे से पेड़ से बांधकर लटका देता था I दो चार फटे  जूते सिलने के लिए पड़े रहते, जिस तन्मयता से वह उनको सिलता था, वो सच में देखने वाली बात थी I

 

एक दिन जब मैं वहां से गुजर रहा था, मुझसे रहा नहीं गया, मैंने सोचा आज इससे कुछ बातें कर ही ली जाये I

 

मैं  धीरे  धीरे उसके  पास  गया और  बोला  कि  मैं यहाँ  बैठूं  ?

 

साहब आप यहाँ धूप में बैठिएगा  ?

 

“हाँ, अगर तुम्हें कोई दिक्कत न हो” I

 

“साहब भला मुझे क्या दिक्कत होगी, भले आपको ही इस गमछी से छावँ ना मिले” I

 

“कोई बात नहीं है भाई, इसी बहाने धूप सेवन भी हो जायेगा और विटामिन भी शरीर को मिल जायेगा” I यह कहकर मैं वहीँ पर एक पत्थर के टिल्हे पर आराम से बैठ गया I

                   

मैंने उससे कहा कि पहले तुम अपना नाम मुझे बतलाओ ?

 

साहब हमारे नाम में रखा ही क्या है ? सभी तो मोची, ए मोची कहकर पुकारते हैं फिर भी आप पहले आदमी हैं जो मुझे अपना नाम बतलाने के लिए बोल रहें हैं, साहब मेरा नाम है "श्री  गंगा राम मोची" उसने बड़े चाव से अपना नाम बतलाया I

मैं तुम्हें “गंगा” के नाम से पुकारूँगा, वह थोडा अचंभित तो हुआ पर खुश भी नजर आया I

 

पर तुमने अपना नाम बतलाने के में “श्री” क्यों इस्तमाल किया?

"क्या बतलाएं साहब, जब मैं छोटा था तो मुझे मेरे बाप ने सिखलाया कि  जब भी किसी का नाम लो तो उसके नाम के पहले “श्री” जरूर लगाया करो, यह तरीका है बोलने का, और  साथ  ही साथ  उस आदमी का  सममान  भी हो जाता है I पर मेरे नाम के पहले कभी किसी ने  “श्री” लगाया नहीं, और वैसे भी मुझे तो मेरे नाम से कोई पुकारता भी नहीं, इसलिए जब भी अपना नाम बतलाने का मुझे मौका मिलता है तो मैं “श्री” जरूर लगाता हूँ ।

गंगा कि बातें बड़ी दिलचस्प थी, उसके बात करने का अंदाज़ बिलकुल निराला था, लगता ही नहीं, था कि यह बातें गंगा जैसा आदमी भी कर सकता है I

हाँ, तो गंगा तुम्हारे घर में और कौन कौन से से लोग हैं, मेरा मतलब तुम्हारे परिवार में और कौन हैं ? मैंने गंगा से पूछा I

गंगा ने कहा : साहब एक जोरू थी जो अल्लाह को प्यारी हो गयी, एक लड़का है, और दो बेटी, बस यह छोटा सा परिवार हैI

सभी साथ रहते हो  क्या ?

नहीं साहब, दोनों बेटी कि शादी तो बहुत पहले कर दियें, वे अपनी अपनी गृहस्ती में मगन हैं, बेटा की भी शादी हम कर दियें, उसे भी दो बेटा है, वह अपनी जोरू बच्चा के साथ हमरे ही पास रहता है, गंगा ने कहा I

हमारे बीच बात चीत का दौर चल ही रहा था कि इस बीच एक सज्जन वहाँ आये और बड़ी कड़क आवाज में पूछा कि हमारा चप्पल सिल कर तैयार है  क्या ? गंगा ने कहा कि हुजूर वो तो कब का तैयार कर हम रख्खे हैं,  बस आपका ही इन्तेजार कर रहे थे I

"ठीक है ठीक है, कितना हुआ"?

"जो मुनासिब लगे दे  दीजिये, गंगा ने कहा"

 

"यही बात तुम लोगों कि ठीक नहीं है, अपना रेट तुम लोग बतलाओगे नहीं और हमें क्या पता कि इसका मजदूरी  कितना हुआ? तुम लोगों को पैसा ऐठने कि बड़ी बुरी बीमारी है, बतलाओ कितना दे दें" ?

 

"साहब  बीस रुपैया दे दीजिये" गंगा बड़ी बिनम्रता से बोला ।

 

"बीस   रुपैया तो बहुत होता है, तुम लोग, लोगों को इसी तरह बेवकूफ बनाकर लूटते हो"?

"साहब, हम गरीब क्या लूटेंगे, हम तो रोज कमाते हैं और खाते हैं, कल के खाने तक का पैसा भी तो हमारे पास नहीं बचता है, आज जो कमाई होगी उसी से एक शाम  का चूल्हा जलेगा, और हाँ साहब ?

आप लोगन यही जूता खरीदने के टाइम पर चार - पांच हज़ार लूटा देते हैँ,  उस टाइम में जब आपको दूकान वाला लूटता है तो आप  बड़ी खुश ख़ुशी लूट जाते हैं ;

और वही जूता जब फट जाता है और आप रिपैएर के लिए लाते हैं तो बीस रुपैया भी आपको भारी लगाने लगता है, एक बात  और साहब जिन लोगों ने लाखों, करोड़ों लूट कर अपनी अपनी तिजोरी भर ली है और  रोज  ही लूट  रहें हैं, उन्हें तो कहने कि आपको या किसी को कोई हिम्मत नहीं होती  ! इतना बोल कर गंगा ने एक गहरी सांस ली और फिर बोला,

“मैंने तो आपसे पहले ही कहा था कि जो मुनासिब लगे समझ कर दे दीजिये, पर आपने ही कहा कि अपना रेट बतलाओ, अब हम क्या कहें", गंगा इतनी सारी बातें बड़ी सहजता से कह कर चुप हो गया I गंगा कि बातों में दम था, फिर उन सज्जन ने अपने जेब से पंद्रह रुपैये निकाले और गंगा की हथेली पर रख दिए और बोले कि रख लो, बहुत हैं I

गंगा उन पैसों को तो रख लिया पर यह बोलने से नहीं चुका कि साहब,” पांच रुपैये आपने फिर भी बचा  ही लिए हम गरीबन  का पेट काटकर, चलिए ठीक ही है, इससे आपके बच्चों का एक आध चाकलेट तो निकल ही आएगा”  I

शायद गंगा कि बात उन सज्जन को कहीं लग गयी थी, उन्होंने और पांच रुपैये जेब से निकाले और चुपचाप  गंगा को दे दिया, गंगा के चेहरे पर की ख़ुशी लौट आयी थी, बोला, "अल्लाह आपका  भला  करे" I शायद  उसे उसकी पूरी मेहनत कि मजदूरी जो मिल गयी थी I

मुझे  भी कुछ और काम था,  मैंने गंगा से कहा कि अच्छा  गंगा  अब मैं चलता हूँ, फिर कभी  आऊंगा I

 

"अच्छा   साहब पर आइयेगा जरूर, आपसे बात करके बहुत बढ़ियाँ लगा, बहुत दिनों के बाद मन थोडा हल्का हो गया है"।

 

“अच्छा   साहब राम राम”, यह कह कर गंगा अपना सर नीचे कर तन्मयता के साथ अपने काम में लग गया, लगा जैसे अभी कुछ हुआ ही ना हो I

 

मैं भी अपने मन में कई एक विचार लेकर वहां से चल पड़ा I

मैं जब भी वहां से गुजरता, तो मेरा ध्यान अनायास ही उसकी तरफ जरूर ही खींच जाता, उसका भी  ध्यान अगर मेरी  ओर पड़ता  तो एक हाथ उठाकर  सलाम की मुद्रा में मेरा अभिवादन अवश्य करता, मैं भी अपना हाथ उठाकर उसका अभिवादन स्वीकार कर लेता था, पर मुझे लगता कि कहीं अपनी कातर आँखों  से वह मुझसे कुछ कहना चाह रहा हो, पर मैं रूक नहीं पाता और आगे निकल जाता I

काफी दिनों के बाद एक दिन मैंने सोचा कि नहीं आज थोडा गंगा के पास थोड़ा  बैठ लूं, यह सोच कर मैं उसके पास गया और बोला," कैसे हो गंगा"?

गंगा ने अपनी नजर उठा कर मेरी ओर देखा  और बहुत खुश होकर बोला, "साहब अच्छा  हूँ, और आप कैसे हैं"?

 

"मैं भी ठीक ठाक हूँ" मैंने हंसते हुए कहा I

 

साहब ऐसे क्यों बोलते हैं, अल्लाह आपको बरकत दें, हम तो रोज ही आपके सलामती की  दुआ करते हैं, यह बोल कर थोड़ी देर के लिए वह चुप हो गया I

 

मैंने बात चीत का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए उससे पूछ, "अच्छा  गंगा तुम्हारी  उम्र  कितनी  हो गयी"?

 

वह कुछ देर तक तो सोचने लगा, फिर बोला, साहब क्या है कि हमको तो पता नहीं कि किस सन में मेरा जनम हुआ, वैसे भी क्या फरक पड़ता है कि कब  हम जनमें,  फिर भी आप पूछते हैं तो शायद  मेरा जनम आजादी के साल  हुआ था, फिर बड़े गर्व से बोला कि साहब कम से कम हम आजाद  मुलुक में तो जनम लिए, फिर वो अपने दोनों हाथ उठा कर ऊपर आकाश की  ओर देखकर परनाम किया I

 

"ये तुम ऊपर किसको  प्रणाम  कर रहे थे"?

“साहब, हम अपने मैया और बाबूजी को परनाम कर रहे थे और धनयबाद दे रहे थे कि कम से कम आप लोगों ने मुझे आजाद मुलुक में पैदा किया” I

मैं उसके भोलेपन पर मन ही मन मुसकरा रहा था I

"साहब आप जोड़ कर मुझे बतलाइए कि अभी मेरी क्या उमर हो गयी होगी"?

 

"मैनें मन ही मन हिसाब लगा कर उसे बतलाया कि तुम अभी तिरसठ साल के हो गए हो" I पर उसे तिरसठ साल समझ में शायद नहीं आया, यह मैं भापँ गया, क्योंकि वह अपनी मजदूरी  पांच, दस, बीस रुपैये तक ही जानता था, इसलिए मैंने उसे समझाते हुए कहा, कहने का मतलब है कि तुम तीन बीस  जमा  तीन के हो गए हो I

थोड़ी देर वह अपनी उँगलियों पर कुछ हिसाब लगाया फिर शायद उसे तिरसठ का मतलब समझ में आ गया था, इसलिए बोला कि तब तो, मुलुक को आज़ाद हुए भी इतना उमर हो गया, पर हम लोगन तो आज भी वहीँ  पड़े हैं जहां  कल  थे, कोई  फरके महसूस नहीं होता है , यह पता भी नहीं चला कब मुलुक के साथ हमारी उमर भी मुलुके जितनी  हो गयी ! “लगता है, धीरे धीरे ऊपर जाने का वकत आ गया है, पर साहब अभी देह छोड़ने को मन नहीं करता, अभी तो मैं अपने पोते, पोतियों की शादी करूंगा तब अल्लाह मियां के पास जाऊँगा, जाना तो सब को पड़ता है” I

 

माहौल थोडा भारी और बोझिल होता जा रहा था, पर गंगा आज कुछ और ही मूड में था, बोला “आज एक गाना याद आ रहा है साहब; क्या राज कपूर ने गया था ? बिलकुल ही बैलगाड़ी का गाड़ीवान लगता था, क्या तो नाम था उसका, अरे हाँ याद आ गया " हीरामन"; ऊ फिलिम में जो नौटंकी कि बाई बनी थी, उसका नाम भी हीराबाई था, वो बड़े प्यार से उसको  फिलिमवा में “मीत” कह के बुलाती थी I  इतना कह कर गंगा शायद कहीं खो गया थोड़ी देर के लिए, लगा जैसे वह मन ही मन उस फ़िल्म का आनंद ले रहा हो, पर एका एक बोल उठा !

 

अगर साहब आप कहें तो मैं आपको  फिलिमवा का वो गीत सजन रे वाला गा कर सुनाऊँ, अच्छा लगेगा सुन के साहब ?

 

"सुनाओ  भी  सुनाओ" मुझे उसकी भोली बातों में आनद का रस जो मिल रहा था I फिर तो वो चालू हो गया

 

"सजन  रे  झूठ मत बोलो, खुदा  के पास जाना है,                                   

ना हाथी है ना घोडा है, वहां तो पैदल ही जाना  है,  

"सजन  रे  झूठ मत बोलो, खुदा  के पास जाना है,                                 

 

फिर वह मन ही मन गुनगुनाते हुआ बोला, “साहब एक बात तो है इस गाने में बड़ा दम है, राज कपूर ने भी बड़े मस्ती में गाया है, और एक बात है साहब,  सच ही तो है, सब कुछ तो यहीं धरा रह जायेगा, फिर काहे की इतनी भागम दौड़ और हाय  हाय, साहब यही बात मुझे समझ में नहीं आती है”, इतना बोलकर गंगा चुप हो गया I

बात चीत का यह दौर जैसे दार्शनिक होता जा रहा था, मैं भी शायद उसकी  बातों में कहीं खो गया था, किसी को भी तो पता नहीं कि क्यों इन्सान सारी ज़िन्दगी भागता ही रहता है, 

 

मुझे अपनी ही लिखी एक कविता “तलाश” की कुछ पंक्तियाँ जेहन में आ रही थी .......!

"ज़िन्दगी  है  एक   छलावा,  एक   धुंद      एक     भूलावा,

ज़िन्दगी  है   सारी   कि  सारी      एक         भटकन,

कभी   ना    ख़त्म   होने    वाली    एक       तलाश"? 

 

मन थोड़ा भारी हो रहा था, मैंने सोचा  कि अब चलूँ, गंगा के भी काम करने का टाइम है, मैंने गंगा से कहा, अच्छा   गंगा, अभी तुम्हारे काम करने का टाइम है, मुझे भी कुछ काम याद आ गया, अभी मैं चलता हूँ I यह कहकर मैं जाने की मुद्रा में खड़ा होकर देह हाथ सीधा करने लगा I

 

“अच्छा राम राम साहब, बड़ा अच्छा लगा आज”, यह कहकर वह वहां पड़े फटे जूते की सिलाई में लग गया, ऐसा लगा उसे इस बात का एहसास भी नहीं है कि मैं अभी वहीँ पर हूँ, पर गंगा तो ऐसा ही था, वह बिलकुल बिंदास वाला अंदाज, और यही बात मुझे उसकी सबसे अच्छी लगाती थी I मैं धीरे धीरे वहां से खिसक चला, ढेरों सारे विचार मन में आ जा रहे थे, मैं गंगा के ही बारे में सोचता हुआ वहां से निकल पड़ा I

समय इसी तरह बीतता रहा, जून की तपती दुपहरी में कहीं भी बाहर निकलने का मन नहीं करता था, पर एक दिन मुझे बैंक में कुछ जरूरी काम निबटाने थे, झख मारकर घर से बाहर निकला, मोड़ पर नजर दोड़ाई तो देखा गंगा ऊंघ रहा है, शायद उसके पास काम नहीं था, या फिर तपती दुपहरी का मजा उठा रहा था, खैर, मैं बैंक की ओर चल पड़ा I बैंक का काम ख़तम करने के बाद पर वापस घर की ओर आ ही रहा था कि एक जानी पहचानी सी आवाज कानों में गूंजी ।

"राम राम साहब", नजर उठाई तो देखा गंगा अपने दोनों हाथ जोड़कर बैठा था, शायद वह दिन का लंच ले रहा था, मन में एक कौतुहल सी जागी, देंखें गंगा जैसे लोग क्या खाना खातें होंगें, यह सोचकर मैं उसके पास चला गया और अपनी चिर-परिचित टिल्हे पर बैठ गया I

"खाना खा रहे हो गंगा"?

 

"जी  साहब"

 

"क्या है खाने में आज"?

 

"साहब रोजे एक ही चीज रहता है, वही रोटी, नून. पियाज और सत्तू“.........? ? ?

 

सबजी  उबजी साथ में नहीं है" मैंने बड़े ही उत्सकता से पूछा I

कहाँ  साहब, सबजी उबजी कहाँ  है  हमरे  नसीब में, हम तो सबजी  का स्वाद भी कब चखें, यह भी याद नहीं रहता, हाँ  वो  हमरी बेटे  की मेहरारू कभी कभी  सबजी या सालन  महीने दो महीने में एक आध बार बना लेती है, बस साहब, हम लोग तो रोटी और पियाज खा कर मगन रहते हैं, फिर सत्तू जो है, पानी में घोलकर नून के साथ पी लिया, बस गरमी से से छूट्टी, साहब एक बात बतलाएं, यह सत्तू जो है ना, समझिये हम गरीबन का जान है, यह सत्तू नहीं रहता तो साहब पता नहीं ई गरीबन सब क्या खा कर पेट भरते और जिन्दा रहते, बिहार, यू पी में साहब  यही पूरा खाना हो जाता है I यह कहकर वह थोड़ी देर चुप हो गया, पर साहब आज पानी नहीं है हमरे पास, पानी लेना हम भूल गए I

 

"कोई बात नहीं गंगा, मेरे साथ चलो, मेरा घर पास में ही है, वहां से पानी ले लेना" I

 

"चलिए  साहब चलें, बहुत पियास लगी हुई है", मैं गंगा को साथ लिए घर की ओर चल पड़ा, घर पहुंचते ही मैंने उसको  फ्रिज से एक ठंडा बोतल  निकल कर पानी  पीने के लिए दिया, और कहा कि जितना  पीना  है पी लो और फिर  हम बोतल भर  देते हैं, साथ ले जाओ, आज गरमी भी तो बहुत है, वैसे यह बोतल भी तुम ही रख  लेना, जब कभी भी ठन्डे  पानी की जरूरत हो तो बे हिचक यहाँ चले आना I गंगा को सच में बहुत प्यास लगी हुयी थी, वह गटागट  पूरी की  पूरी बोतल खाली कर गया ।

 

फिर  बड़े ही कृतज्ञ  भाव  से सर  झुका कर "बोला, साहब    आज   ई  मशीनवा का ठंडा पानी पीकर  हम तिरिप्त  हो  गए, बहुत  सुनते  थे कि ई  मशीनवा   पानी ठंडा कर देता है, पर आज पता चला  कि ई   मशीनवा तो सच्चे में बहुते ही ठंडा कर देता है, साहब कैसे हम आपका ई  रीनबा (कर्ज)  चुकायेंगे"?

 

वह जो बोल रहा था, उसकी  आँखों में साफ साफ वही भाव झलक रही था, सहसा  मुझे राज कपूर की फ़िल्म "जागते रहो" का वो आखरी सीन याद आ गया जब नर्गिस अपने हाथों से राज कपूर को पानी पिला रही थी, उस सीन में पानी पीते पीते राज कपूर की आँखों से जो भाव टपक रहा था , लगभग वैसा ही भाव गंगा की आँखों में दीख रहा था, पर गंगा इन सब से बेखबर पानी पीने में मगन था I

 

गंगा पानी पी कर एक और बोतल मांग कर अपने हाथ में लिया, और बोला, “अच्छा साहब अब मैं जाता हूँ, बचा खुचा काम ख़तम कर लूं फिर घर चला जाऊँगा, आज जरा जल्दी जाना है, घर पर भी कुछ काम है”, अच्छा साहब "राम राम साहब" यह कहकर गंगा वहां से निकल पड़ा I

 

मैंने भी सोचा कि चलो चल कर थोडा  आराम कर लिया जाये, यह सोच कर मैं भी अपने बेड रूम में बिस्तर पर लेट गया I आँखें बंद कर सोने की चेष्टा करने लगा, पर नींद  नहीं  आयी, रह रह कर आँखों के सामने गंगा का ही वही भोला भाला मासूम चेहरा घूम जाता, और उसकी कही अनकही बातें याद आने लगाती I फिर मन में कहीं एक ख्याल यह भी आता कि आखिर गंगा की बातें मुझे क्यों प्रभावित कर जाती है, वह तो पढ़ा लिखा भी नहीं था, ठेठ भाषा में कहें तो लोग उसको अनपढ़ और जाहिल कह कर ही पुकारेंगे, शायद उसका भोलापन, और निश्चल  मन कहीं मेरे  अंतर्मन को छू जाता होगा, इसी तरह के विचार मन में आते रहे I

 

पर कहीं मुझे गंगा से इर्ष्या तो महसूस नहीं हो रही थी, वह अनपढ़, जाहिल, नंगे बदन वाला इंसान जिसे ठीक से दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं थी, वो मुझसे ज्यादा खुश कैसे रह सकता है I उसे कोई भी टेंशन नहीं था, वह आराम से जब चाहे  जैसा भी  कंडीसन  हो, सो लेता था,  जब कि  मुझे,  लगभग  सभी सुविधाएं उपलब्ध थी, फिर भी हर वक्त कोई ना कोई  टेंशन लगा ही रहता था I कभी  ठीक से टेंशन फ्री नींद भी तो महीनों से नहीं आयी, और यह नंगा  फकीर  टाइप का आदमी  बिना  किसी टेंशन के कैसे रह पाता है? 

 

कहीं ना कहीं मेरे मन में यह बात खल रही थी, और मुझे किसी महापुरुष की ये कही बातें याद आ रही थी, "जिसके पास कुछ भी नहीं, उसके पास सब कुछ होता है, और जिसके पास सब कुछ है, उसके पास कुछ भी नहीं होता  है"?

मन में इसी तरह के विचार आते जाते रहे और कब  नींद लग गयी यह पता भी नहीं चला I

समय धीरे धीरे इसी तरह बीतता रहा, बीच बीच में मैं कभी कभी गंगा से हेल्लो, हाई कर लेता, वह भी अपने काम में मगन रहता, दिन दुनियां से बेखबर, फिर वह कुछ दिनों तक लगातार दिखलाई नहीं पड़ा I मैं भी उसको भूलने लगा था, मुझे भी उसकी याद कम ही  आती  थी ।

 

एक दिन जब लंच के टाइम पर पत्नी खाना लगा ही रही थी कि बेल की घंटी सुनाई पड़ी, कोई बड़ी बेसब्री से बेल पर बेल बजाये जा रहा था I  दरवाजा खोला तो देखा गंगा खड़ा है I

 

मैं थोडा अचंभित हुआ और पूछा  "गंगा तुम ! अभी, इस तपती दुपहरिया में, कब आये?  बहुत दिनों बाद दिखलाई पड़े हो?  कहाँ चले गए थे?  सब खैरियत तो है ? घर पर सब ठीक - ठाक तो है ?

 

मैंने एक साथ  कई एक सवाल गंगा के ऊपर दाग दिए थे, जिससे वह सकते में आ गया, यह भांप कर मैंने कहा, "अन्दर आ जाओ, बाहर बहुत गरमी है" I   गंगा अन्दर आ गया, मैंने अपनी पत्नी से कहा कि देखो गंगा आया है I

 

गंगा अन्दर आ चूका था, "राम राम मलकिनी", यह कह कर गंगा वहीँ फर्श पर पालथी मार कर बैठ गया I

 

"साहब देश गए थे, आज ही लौटे हैं" I

मैंने पत्नी से कहा कि इसके कहने का मतलब अपने गाँव से है जो इसका नेटिव प्लेस है, मेरी पत्नी ने हामी भरी और अपना सर हिलाकर कहा कि हाँ, मैं समझ गयी थी I

 

“साहब असल में बात ई है कि   हम बीमार पड़ गए थे, उसी इलाज उलाज के चक्करवा में टाइम लग गया” गंगा ने कहा ।

"हाँ तो अब ठीक हो ना"?

 

"डागडर के पास जाते हैं, कोई सूई  दे देता है और कुछ गोली,  बोला तो है कि खाओ, सब ठीक हो जायेगा, चिनता का कौनों बात नहीं है साहब, सभ्हे  ठीक हो जायेगा”, यह कह कर गंगा चुप हो गया I  

 

गंगा का शरीर ऊपर से नंगा था, वह केवल एक धोती लपेटे थे और कंधे पर एक मैली सी गमछी लटक रही थी, पर इन सब से बेखबर वह बोला, "साहब एक बात बोलें" ? "साहब, साहब, बुरा मत मानियेगा, अब हमरे दिल में यह बात आ गयी है तो बिना बोले कैसा तो लगेगा ?

 

"बोलो बोलो, क्या कहना चाहते हो"?

 

“मलकिनी तो बहुते  सुन्दर  लगती है, बिलकुल  फिलम की हिरोइन की तरह, इन्हें देखकर तो ऊ ज़माने की मीना कुमारी,  मधुबाला की याद ताजा हो गयी, साहब इनको तो आप बुरी नजर से बचाकर ही रखियेगा, कहीं कभी भी किसी कि नजर ना लग जाए,  अभी इतनी सुन्दर दिखती है तो  राम जाने अपने ज़माने में और कितनी सुन्दर रही होगी, साकछात लछमी  मैईया  जैसी दिखती है, कितना तेज़  है चेहरावा  पे, है कि नहीं साहब”?

 

गंगा  मुझसे अपनी कही बातों की पुष्टि  कराना चाहता था, मैंने भी अपना सर हिलाते हुए धीरे से कहा, "हाँ वो बात तो गंगा" ।

उधर मेरी  पत्नी अपनी इतनी तारीफ़ सुनकर मन ही मन शायद लजा रही थी, मेरी ओर देखकर मुस्करा दी, शायद यह कहना चाहती हो कि इतनी तारीफ़ तो मैंने कभी की ही नहीं हो?

मेरी पत्नी ने एकाएक गंगा से पूछा "गंगा तुम कमीज क्यों नहीं पहनते हो"?

"क्या है मलकिनी कि  जहाँ पर हम  बैठते हैं, साहब  देखिन  हैं ऊ जगह, वहां गरमी बहुत लगती है, पसीना जो देह पर रहता है ना, उसपर जब हवा लगती  है तो देह को ठंडक पहुंचती है",  इसलिए हम बिना कमीज़ के ही रहते हैं ?

एक बात बोलें मलकिनी, गांधी बाबा और बिनोबा बाबा भी मलकिनी बिना कमीजे पहिने ज़िंदगी गुज़ार दिए, उनका ही देखा देखी अभी जो एक रामदेव बाबा हैं,, जो हर वकत साँसे लेते और फेंकते रहते है, वो भी मलकिनी बिना कमीजे के रहते हैं, मलकिनी जब इतना बड़ बड़ लोगन बिना कमीज़ के रह लिए तो हमें  बिना कमीज के रहने में कैसा शरम?  खुला देह में रहने का अलगे आनंद है, यह कह कर गंगा चुप हो गया I

 

गंगा कि बातों में तर्क था, मेरी पत्नी ठण्ड कि इतनी लम्बी  दलील सुन कर चुप ही रह जाना बेहतर समझा I

"अच्छा गंगा तुम्हारा पोता सब बढ़िया से लिख - पढ़ लिख रहा है ना"? मैंने पूछा

 

ठीके  ठाक है साहब, मुनासिपालिटी का इस्कूल में डाल दिए है, हम तो ठहरे गवांर आदमी, अब क्या पढ़ता  लिखता है यह तो मुझे समझ में आता है नहीं ? क्या है साहब, थोडा बहुत पढ़ लिख लेगा, फिर तो यही काम करना है पेट भरने के लिए I

वैसे हमार बेटा का बहुत मन था कि अंगरेजी  इस्कूल में पढ़ाते, पर हमीं बोले कि देख लो अपने पड़ोस के ड्राईवर की हालत, दो दो लड़का है साहब उसको, दोनों को अंगरेजी  इश्कुलवा में डाल दिया है, उसकी मेहरारू  भी  घर घर जाकर काम करती है, बता  रहा था कि सब मिलाकर  आठ  दस  हज़ार कमा  लेता है, पर आधा पैसा तो पढ़ाने ही में खरच हो जाता है I

एक दिन बोल रहा था कि चच्चा, वो हमको चच्चा ही बोलता है, “हम बहुत टेनसन में रहते हैं, ई पढाई में कमर टूट गयी, चच्चा, अभी से ई बलड पेरेसर और चीनी का बिमारी हो गया,” हम उसको बोले "कि तो काहे ना लड़कवन  को मुनासिपालिटी का इस्कूल में डाल देते हो" ; "ऊ बोला कि अब क्या कहें चच्चा, “ना उगलते बनता है, ना निगलते” I

 

अब आप ही बतलाइए साहब "जो  चीज़ जी का जंजाल बने, वैसन काम करने से क्या फायदा," साहब हम तो कहत हैं कि सब अंगरेजी  इस्कूल को बंद कर दो, सब झंझटे ख़तम हो जायेगा I गंगा  थोड़ी देर के लिए चुप हो गया, एक सन्नाटा सा छ गया था, पर  फिर एकाएक गंगा बोल उठा  !

 

साहब बस एक आखरी बात " एक कहावत याद आ गयी, वैसे आप भी सुनें ही होंगे, क्या कहते हैं कि "अंगेरज़ चले गए और औलाद छोड़ गए", हम सभी बस वही औलाद हैं I

 

गंगा कि बातों में बहुत दम था, मन में कहीं ये विचार आया कि यह बिना पढ़ा लिखा आदमी इतनी साफ़ बातें कैसे सोचता है और कहता है, फिर भी मैंने कहा कि  "गंगा, सरकार तो तुम लोगों को बहुत फैसीलटी दियें है रिजर्वेसन है, बढ़िया से पढाओ, पढ़ लिख लेगा तो बड़ा साहब बन जायेगा"

 

"साहब क्या है कि ई रिजर्वेसनवा   उन लोगन के लिए है जिनके घर से पहले ही कोई ना कोई सरकारी पद ओहदा पा गया है, उन लोगन को फैसीलटी है, वे अपने लड़कन को अंग्रेजी इस्कूल में डाल दिए हैं, अब जो  इन अंग्रेजी इस्कूल से पढ़ कर निकलता है ना साहब, वही कामपिटीसन में कॉम्पिट करता है, सरकार को चाहिए कि एक  बार जिसका फॅमिली में कौनों  कॉम्पिट कर गया, उसके बाद  ऊ फॅमिली में ई फैसीलटी बंद कर दे, इससे यह फायदा  होगा  साहब कि औरों  फॅमिली में लोगन के लड़कन को  सरकारी  नौकरी में घूसने का मौक़ा मिलेगा" I गंगा कि बातों से साफ़ साफ़ सरकार के विरुद्ध उसका आक्रोश  दिखलाई  पड़ रहा था I

 

"बोला, “साहब आपको   मौका   मिले   तो   सरकार तक मेरी बात   पहुंचाईएगा जरूर” ।

मैंने  हामी में अपना सर हिला दिया, मन में सोचा कि सरकार को क्या यह सब पता नहीं  है ?

 

फिर  भी ...............................................?  ?  ?  “मैं   चुप   रहा”   I

"

मलकिनी, थोडा पानी  मिल जाता तो हम सत्तू घोलकर पी लेते, क्या है कि आज हम जल्दी में घर से निकल पड़े, रोटी भी ले नहीं सके" यह कह कर गंगा चुप हो गया I

 

"ठहरो गंगा, मैं अभी पानी लाती हूँ" मेरी पत्नी किचेन में गयी और थोड़ी देर बाद एक पैकेट और एक बोतल पानी लाकर गंगा के हाथों में देते हुए बोली, “गंगा यह थोडा खाना है, खा लेना” I

 

"मलकिनी, आप काहे को तकलीफ किये, अरे हम लोगन तो सत्तू  पी लिए बस समझो कि पूरा खाना हो गया , पिर भी आप दे रहे हैं तो ई हम कैसे इनकार कर सकते हैं" ;

 

गंगा चुपचाप खाने का पैकेट और बोतल ले लिया और बोला कि "मलकिनी ई दिन हम सारी ज़िन्दगी में ना भूलेंगे । साहब तो अच्छे हैं हीं, पर आप तो बहुते ही अच्छी हों, साहबों से भी अच्छा ;

 

शायद यह गंगा का उस पैकेट के लिय कम्प्लीमेंट था यह क्या पता कि वो दिल से सच्ची बात कह गया हो, मेरी पत्नी की आँखें नाम हो गयी थी गंगा के ये उदगार सुन कर, पर उसने बड़ी आसानी से  सब छुपा लिया ।  

 

"अच्छा मलकिनी राम राम, अच्छा साहब राम राम, अब हम चलते हैं", यह कह कर गंगा वहां से बाहर जाने को निकल पड़ा I

"ठीक है गंगा, फिर  आना, तुम्हारे आने से अच्छा लगता है, मेरी पत्नी ने भी जोर देकर कहा, “राम राम गंगा फिर  आना”, बहुते मन लगा तुमसे बाते कर के, मेरी पत्नी गंगा के ही कहने के अंदाज़ में बोली I

 

गंगा चला गया, हम लोग भी खाना खाकर थोड़ी  देर उसी के बारे में बातें करने लगे, आज गंगा बातों बातों में ढेर सारी बातें कह गया था,  मैं  उसी का मनन  और चिंतन  कर रहा था I

 

मैं   रोज़ ही उधर मोड़ से गुजरता था, पर गंगा दिखलाई  नहीं पड़ता, एक दिन मैंने कौतुहल वश आस पास कि दूकानों वालों से पूछा  कि "इस  कोने  पर  गंगा  नाम का एक  आदमी  बैठता था वह  आज    कल  दिखाई  नहीं पड़ता है",   आपको उसके बारे  में तो जानकारी होगी ?

कौन गंगा ? यहाँ पर तो कोई गंगा नहीं  बैठता है, हम तो किसी गंगा उंगा को नहीं जानते, हाँ यहाँ पर एक मोचिया बैठता था,पर आज कल साला नज़र नहीं आता है, जमाना से गायब है, क्या बात है साहब, कोई जूता, चप्पल  टूट गया  है तो उधर  ऊ मोड़ पर चले जाईये, वहां पर भी एक मोचिया बैठता है, आपका काम हो जायेगा । 

 

मैं हैरान था उस दूकान वाले कि बातें सुनकर, क्या इस तरह से भी कोई किसी के बारे में सोच और बोल भी सकता है, क्या गंगा इन्सान नहीं था ? क्या गंगा केवल एक मोची था और कुछ नहीं ? “पर इन्हें क्या मालूम कि गंगा एक संत था”, उनके लिए तो जो शरीर पर तो बस जो केसरिया रंग के वस्त्र और माथे पर लम्बा लाल तिलक लगा लिया वही संत और महापुरुष हो गया, फटा चीटा, नंगे बदन रहने वाला गंगा तो एक मोचिया के अलावा कुछ भी तो नहीं था ।  

 

फिर भी   अपनी  तसल्ली के लिए मैंने दुबारा दूसरे दूकान  वाले से पूछा, “भाई साहब यहाँ एक मोची बैठता था, अगर आपको उसके बारे में कोई जानकारी हो तो कृपया मुझे बताने का कष्ट करेंगे  

 

उस दूकान  वाले ने कहा, “हाँ हाँ एक मोची तो  बैठता था, पर वह तो बहुत दिनों से आना  जाना  छोड़ दिया है” ;

“पर अभी तो थोड़ी दिन पहले वह मेरे घर पर आया था”, मैंने कहा I

 

"साहब, हमें तो नहीं पता, हम तो महीनो से उस मोची को नहीं देखें हैं", दूकान वाले ने कहा I

 

मेरा मन भारी हो रहा था, वैसे भी गंगा जैसे लोगों से इस सभ्य सोसाइटी को क्या फर्क पड़ता है ? गंगा जैसे कितने लोग कब आते हैं और कब चले जाते हैं, किसी कोई तो कोई फर्क नहीं पड़ता ?

 

मन में कई  विचार आ जा रहे थे, अगर गंगा उस रोज नहीं आया तो उस दिन हमारे घर पर वो कौन था?

 

क्या         वो      गंगा     नहीं     था,       तो    फिर     क्या            वह  

उ .................................स .................................................. ..की

आ.............................. .त..........................................मा..........थी

दूर      नेपथ्य    में    कहीं   स्पीकर पर एक  आवाज़  गूँज   रही  थी,

"गंगा                      आये                           कहाँ                         से;

गंगा                       जाए                            कहाँ                          रे”

 

अरे, यह क्या फालतू विचार मेरे मन में आ रहे थे, मैंने अपने आप को समझाया, नहीं, नहीं वह गंगा ही था, इतनी देर तक उस दिन  हमसे बातें हुई, हाँ वह जरूर गंगा ही था, हो सकता है इन लोगों को दिखाई नहीं पड़ा हो? या, तुरंत मेरे घर से निकल के चला गया हो?  यहाँ बैठा ही नहीं हो?

 

पर  मुझे क्या पता था कि उस दिन अंतिम मुलाकात थी  गंगा के साथ, क्या गंगा आखरी बार हमारे पास आया था ?

उस दिन के बाद गंगा फिर कभी नहीं दिखा, पता नहीं क्या हुआ गंगा का ? मेरे पास तो उसका पता ठिकाना  भी नहीं था कि उसकी खोज खबर  भी लेते ।

गंगा कि याद कभी मिटी नहीं I उसका वह भोला पन, निश्चल मन, और बात करने का अपना अलग अंदाज़  भूलाये नहीं भूलता I

आज भी हम इस आस में हैं कि किसी दिन अचानक कहीं से गंगा टपक जायेगा  और फिर वही चिर परिचित मुस्कान के साथ वो जानी पहचानी सी मीठी आवाज गूंजेगी”....................?...?....?

"राम     राम    साहब,    

हम     गंगा,     हम     गंगा”    ?       ?     ?

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गुलाब की वो सूखी पंखुड़ियाँ

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अंतरा Post Graduate Diploma in Management के फाइनल ईयर में थी. और आज वेलेंटाइन डे था, वह  अंग्रेजी नावेल “The Notebook a romantic novel by American novelist Nicholas Sparks पढ़ ही रही थी कि उसका ध्यान नावेल के उस पेज पर चला गया जहाँ एक सूखे गुलाब की पंखुड़ियाँ  रखी हुई थी I

सूखे गुलाब की उन पंखुड़ियों को देख कर एकबारगी उसका अंतर्मन अंदर से झकझोरकर कर उसे अपने स्कूल के उन दिनों में ले गया जब वह  दिल्ली के एक कान्वेंट स्कूल में टूवेल्व्थ स्टैण्डर्ड में थी और उस दिन उस स्कूल में आखरी  वेलेंटाइन डे था, अंतरा अपने स्कूल के उन दिनों में जब वह दिल्ली के एक कान्वेंट स्कूल में पढती थी. पूरी तरह से खो चुकी थी और उसे वह सारी बातें , घटनाएं एक एक कर उसके मानस पटल पर आ रही थी I 

वह स्टैंडर्ड वन से इस स्कूल में पढ़ती आ रही थी. बहुत ही मेधावी छात्रा थी पढ़ने मेंए पर वह बिलकुल एक अलग ही किस्म की लड़की थीए एकदम शांतए दोस्त भी बिलकुल चुनिंदा.वह भी सारी लड़कियां हांलाकि इस स्कूल में लडके भी साथ में पढ़ते थे परन्तु अंतरा की ष्मेलष् दोस्त नहीं थे.ए लडके भी उसमें कम ही दिलचस्पी लेते थे.ए अंतरा कभी कभी स्वॅम भी अपने आप से परेशान हो जाती थी. पर उसका स्वभाव ही कुछ वैसा था कि वह लड़कों से घुल मिल नहीं पाती थी. लडके भी  उसे इंट्रोवर्ट ही समझते थे. I

अभी अंतरा टूवेल्व्थ स्टैण्डर्ड में आ चुकी थी पर उसका शर्मीला पन ठीक वैसा ही था जब वह शुरू शुरू में इस कान्वेंट स्कूल में, एड्मिसन ली थी. उसकी लड़कियां दोस्त भी उसके इस स्वभाव से परेशान रहती थी और उसे समझाती थी कि भई लड़कों से बात चीत करने में क्या प्रॉब्लम है पर अंतरा को पता नहीं क्या ही जाता था  जब कभी किसी लडके ने कोशिश भी की अंतरा से मेल जॉल बढ़ने की पर वे कामयाब नहीं हो पाए I

समीर एक बहुत ही मेधावी छात्र था पढ़ने में. समीर अंतरा के ही क्लास में था. समीर के अंतर्मन में कहीं न कहीं आन्तरा के लिए एक सॉफ्ट कार्नर था जिसे हम अभी प्यार कि संज्ञा तो नहीं दे सकते पर हाँ समीर की दिलचस्पी अंतरा में हमेशा बनी रहती थी. समीर भी स्वभाव से शर्मीला लड़का था पर वह कम से कम अन्तरा से कहीं बेहतर था. समीर प्रायः कोई न कोई मौका ढूंढता ही रहता था अंतरा से मिलने का बात चीत करने का पर उसे सफलता कम ही मिलती थी इधर अन्तरा के अंदर भी समीर के लिए एक अलग किस्म की फीलिंग्स थी पर अन्तरा स्वम भी इस फीलिंग्स को समझ नहीं पाती थी उसका भी मन करता था कि वह समीर से मिले बातचीत करे परन्तु अपने अंदर के शर्मीलेपन से बाहर निकल ही नहीं पाती थी I

फरवरी का महीना शुरू हो चूका था और १४ फतवारी को वेलेंटाइन डे भी आने ही वाला था, आज १२ फरवरी था और मात्र दो ही दिन रह गए थे वेलेंटाइन डे को आने में ,समीर इस बार वेलेंटाइन डे के दिन अन्तरा को कोई न कोई प्रेजन्टेशन (उपहार) निश्चित रूप से देना चाहता था क्योंकि समीर को इस बात का एहसास था कि इस स्कूल में यह आखरी वेलेंटाइन डे है, फिर पता नहीं कहाँ वह और कहाँ अंतरा , फिर कभी मुलाकत हो कि न हो पर उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह अन्तरा को देृ भी तो क्या दे I

इधर अंतरा के भी अंतर्मन में इसी प्रकार का अंतर्द्वंद्व चल रहा था, उसके अंदर भी कुछ इसी तरह की भावना आ जा रही थी और वह भी असमंजस की स्तिथि में थी, उसका मन भी कर रहा था कि वह भी समीर को कोई प्रेजन्टेशन दे पर वह एक तो हिम्मत जुटा  नहीं पा  रही थी और यह भी उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या प्रेजन्टेशन दें अन्तरा ने सोचा कि अपने दोस्तों से विचार विमर्श करें  फिर उसने अपने आप को स्वॅम ही मना कर दिया और उसके कदम अनायस ही  एक बुक स्टाल की ओर चल पड़े I

बुक स्टाल पर उसने एक सरसरी नजर से पुस्तकों की ओर देखना शुरू किया वास्तव में उसे एक रोमांटिक नावेल की तलाश थी I

अंतरा ने सोचा कि क्यों न बुक स्टाल वाले से ही सलाह ली जाये ए बुक स्टाल के मैनेजर ने जब अंतरा से बात की तो उसने तुरंत एक अंग्रेजी नावेल “The Notebook a romantic novel by American novelist Nicholas Sparks” रैक्स  से निकालकर अंतरा को दिया और कहा  की अभी अभी एक लडके ने भी यही  नावेल खरीदकर ले गया है, अंतरा को याद आया की इसी नावेल पर इसी नाम से एक मूवी हॉलीवुड में बनी थी जो ऑस्कर में नॉमिनेटेड भी हुई थी काफी चर्चित नावेल थी अन्तरा ने इसी नावेल को खरीद लिया फिर बड़े इत्मीनान मन से घर की ओर प्रस्थान कर गयी I

आज अन्ततः १४ फरवरी वेलेंटाइन डे आ ही गया , स्कूल में चारों ओर काफी चहल पल थी ए लड़कों और लड़कियॉं की झुण्ड एक दूसरे को वेलेंटाइन डे की विश कर रहे थे और आपस में प्रेजन्टेशन का भी आदान प्रदान चल रहा था I अंतरा स्कूल के ही  कैंपस में कहीं एक कोनें में घास पर बैठकर इधर उधर देख रही थी पर उसका सारा ध्यान समीर पर केंद्रित था पर समीर कहीं दिखलाई नहीं दे रहा था वह अपना नावेल जिसमें ताजा गुलाब का एक फूल रख दी थी लेकर आयी थी यह सोचकर यदि समीर से भेंट होगी तो वह आज हिम्मत जुटाकर विश करेगी और प्रेजन्टेशन भी दे ही देगी  I

समय धीरे धीरे व्यतीत हो रहा था अंतरा के मन कहीं एक भय समा रहा था कि यदि समीर नहीं आया तब ? हांलाकि अंतरा ने यह बात किसी के साथ शेयर नहीं की थी, वह इसे स्वॅम तक ही सीमित रखी थी प् अंतरा  कहीं तल्लीनता के साथ इसी सोच में डूबी हुयी थी कि अचानक उसके कानों में एक आवाज की गूँज सुनायी दी I

हाई मैं समीर विश यू ए वैरी हैप्पी वेलेंटाइन डे I

अंतरा एकदम से घबड़ा सी गयी फिर अपने आप को संभालते हुए कहा सेम  टू  यू I

समीर एक पैकेट निकालते हुए भेंट स्वरुप अंतरा को देते हुए कहा कि मेरी ओर से यह विशेष प्रेजन्टेशन स्वीकार करो और साथ ही उसने एक गुलाब की कली भी प्रेजेंट की  I

अंतरा जो अंदर ही अंदर काफी खुश थी उसने भी अपना प्रेजन्टेशन निकला और समीर को भेंट करते हुए बोली की मेरी ओर से भी आप स्वीकार करें,ए चूँकि समीर और अंतरा आपस में उतने घुले मिले नहीं थे अतः वह आपस की झिझक बनी हुई थी शायद कहीं ?

समीर ने पूछा कि यहाँ की पढ़ाई के बाद आगे क्या करने का इरादा है ?

अंतरा ने कहा कि यदि एड्मिसन हो जायेगा तो वह Post Graduate Diploma in Management करेगी हँलाकि अभी कुछ भी निश्चित नहीं है  प् दोनों में थोड़ी देर इधर  उधर की वार्तालाप हुई फिर वे अपने अपने राह पर निकल पड़े लौट कर जब अंतरा अपने घर आयी  और पैकेट को खोला तो वह एकदम से आश्चर्य चकित थी  कि समीर ने भी उसे वही नावेल The Notebook प्रेजेंट किया था और उसने भी गुलाब की एक कली दी थी, यह कैसा संजोग था कि एक जैसा प्रेजन्टेशन एक ने दूसरे को दिया था  I  कुदरत के इस करिश्मे को अंतरा उस समय समझ नहीं पाई I

दिन पर दिन बीतते गए  पर  समीर और अंतरा में स्कूल से निकलने के बाद कभी भेंट या मुलाकात नहीं हो पायी प् पर अन्तरा समीर को भुला नहीं पाई और हर वेलेंटाइन डे को वह समीर को अवश्य याद करतीए, अंतरा उस गुलाब की कली को जो अब बिल्कुक सूख चुकी थी उसी नावेल में संजो कर रखी हुयी थी I

अंतरा को काफी समय के बाद यह एहसास हुआ कि क्या वह वास्तव में समीर को चाहती थी, समीर से प्रेम करने लगी थीए साथ ही एक पश्चाताप का बोध भी होता के उसने क्यों नहीं समीर को यह बात बतलाई फिर खुद ही सोचती कि उस उम्र में वह यह सब कहाँ सोच पायी पर इसका उसे कहीं न कहीं अफसोस अवश्य था और सोचती की काश कम से कम एक बार समीर से भेंट हो जाये तो वह अवश्य ही अपने मन की बात समीर से करेगी I

इसी उधेड़बुन में अंतरा थी कि उसे दूर से एक खूबसूरत नौजवान उसकी ओर आता नजर आया I अंतरा ने उसे पहचानने की कोशिश की पर उसे सफलता नहीं मिली तभी वह नवयुवक अन्तरा के बिलकुल पास आकर खड़ा हो गया और कहा ,  विश यू ए वैरी हैप्पी वेलेंटाइन डे I

अंतरा  बिलकुल आश्चर्य चकित थी फिर भी उसने भी कहा , हैप्पी वेलेंटाइन डे टू यू I

समीर ने कहा नहीं पहचाना ना मैं तुम्हारा अपना स्कूल वाला समीर, पास ही के मैनेजमेंट कॉलेज से एम् बी ए कर रहा हूँ, स्कूल से निकलने के बाद मैंने हमेशा तुम्हे तलाश करने कि कोशिश की फिर आज अचानक इधर आना हुआ और फिर मेरी नजर तुम्हारे ऊपर गयी, एक पल के लिए मैं जरा संकोच में था कि कहीं तुम  अंतरा नहीं निकली तब ? पर दूसरे पल तुम्हारी चिर परिचित मुस्कान  और हाव्  भाव  देखते  ही मैं  तुम्हें पहचान गया फिर याद आया कि तुम्हारा भी तो इरादा  मैनेजमेंट करने का था ,फिर तो मैं बिलकुल ही आशवस्त हो गया I

अंतरा जो समीर के अचानक आ जाने से कुछ विचलित सी हो गयी थी धीरे धीरे अपने आप को संयमित किया और हाल चाल पूछने लगी प् फिर अंतरा एकदम अचानक से पूछ बैठी कि समीर तुम मुझे भूल नहीं पाए ?

समीर ने कहा कि तुम क्या सोचती हो कि तुम मुझे भूल पाई ? यह नावेल जो आज भी तुम्हारे हाथ में है इस बात की गवाही दे रहा है कि अंतरा तुमने भी मुझे हमेशा अपने दिल और मन में ही रखा I

अंतरा एकदम से भावुक हो चली थी , वह कहीं पुरानी यादों में शायद कुछ भूली बिसरी यादें ताजा कर रही थी I

समीर भी प्रत्येक वेलेंटाइन डे को अंतरा के द्वारा दी गयी नावेल को साथ रखता इस उम्मीद पर कि कभी ना कभी शायद अंतरा से भेंट हो जाये ?

तभी समीर ने कहा , अंतरा क्या मेरे पास जो तुम्हारे द्वारा दी गयी  गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ और तुम्हारे पास जो उसी नावेल में मेरे द्वारा दी गयी गुलाब की पंखुड़ियाँ एक हो सकती है ? 

अंतरा जो ह्रदय से एकदम भावुक हो चुकी थी किसी तरह अपने आप को संयमित करते हुए नावेल  में से वह सूखी गुलाब की पंखुड़ियाँ  निकाल कर समीर की ओर बढ़ाते हुए कहा, मैं तो अरसे से इस पल के इंतजार में थीए समीर लो अब ये दोनों सूखी गुलाब की पंखुड़ियां  आपस में मिलकर हरी हो जाएगी और फिर अंतरा समीर से लिपट गयीए दोनों की आँखों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी........ I

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 गुलाब की वो सूखी पंखुड़ियाँ    

                   "मान न मान, मैं तेरा मेहमान"

"मान न मान, मैं तेरा मेहमान"

सीमा आज वापस लखनऊ चली गयी, उसके वापस चले जाने से एक और जहाँ इस बात कि तसल्ली थी कि घर का वातावरण  वापस अपने रास्ते पर आ रहा था वहीँ दूसरी ओर  पता नहीं क्यों सीमा के चले जाने का अफसोस भी कम नहीं था, कहीं इस बात का दुःख था कि सीमा  के लिए कुछ अच्छा करना चाहा,पर  सीमा का कुछ हो नहीं पाया,  सीमा की ऊंची उड़ान और उसका एक गलत कदम उसे वापस वहीँ भेज दिया जहाँ से वह मुंबई कुछ करने के लिए, कुछ बनने  के लिए आयी थी, सीमा अपने उसी पेरेंट्स के पास वापस जा रही थी, जहाँ से उसने एक प्रकार विद्रोह कर कुछ करने के लिए मुंबई आयी थी, जैसी कि सीमा ने हमें जानकारी दी थी. ............!  पार्वती से चाय बनाने को कहा, चाय कि पहली चुस्की ली ही थी कि आँखें स्वतः बंद होने लगी और सीमा के आने से और अब तक जाने की एक एक तस्वीर सामने आने लगी........................!

 

सीमा से मेरा दूर दूर तक कोई भी निजी रिश्ता नहीं था, वह मेरे एक करीबी दोस्त जतीन पटेल के कहने पर मुंबई आ रही थी, पटेल के कहने पर ही मैंने अपने जान पहचान के नामी गिरामी सिल्वे एंड सिल्वे कंपनी में अस्थायी रूप से उसकी नौकरी का प्रबंध करवा दिया था I

 

सीमा, मुंबई में  ही वकालत पढ़ी थी, सीमा की अपने माँ से बिलकुल ही नहीं बनती थी, कारण किसी को भी पता नहीं था, और इन सब बातों में कितनी सच्चाई छुपी हुई थी यह यकीन करना कठिन था, पिता जो एक नौकरी पेशे वाले थे, उन्होंने सीमा की पढाई किसी प्रकार पूरी करवा दी थी, उन्होंने सीमा से साफ़ शब्दों में कह दिया था कि भविष्य में अब जो भी उसे करना है, उसके लिए वह स्वतंत्र है, पर उनसे किसी भी प्रकार की कोई उमीद न रखे, फिनान्सिअल मैटर में तो बिलकुल ही नहीं, इस प्रकार का कोई ‘स्टेटमेंट’ एक पिता अपने पुत्र अथवा पुत्री से कैसे कह सकता है, यह भी समझ के परे था, सीमा के  बारे में  पटेल  ने ही सारी जानकारी दी थी ई

 

लखनऊ हाईकोर्ट में सीमा ने वकालत शुरू तो की  थी पर वकालत चल नहीं पाई, तभी सीमा ने एक जान पहचान के करीबी फ्रेंड की कम्पनी में भी ज्वाइन कर लिया था, पर बात तब भी नहीं बन  पा  रही थी, सीमा एक महत्वाकांक्षी लड़की थी, इसमें कोई दो मत नहीं था, वह किसी भी कीमत पर थोड़े ही समय में सब कुछ पा लेना चाहती थी, पर किसी की बैसाखी का सहारा लेकर, उसे पता था कि स्वॅम तो सारी ज़िन्दगी 'स्ट्रगल' भी कर  लो,  पर अंततः क्या मिलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं थी, जब वह मुंबई में पढ़ती थी उसकी जान पहचान पटेल से हुई, यह अब एक मेरे लिए मिस्ट्री ही रहा गया कि वह पटेल के संपर्क में कैसे और क्योंकर आयी? पटेल ने या सीमा ने इस सम्बन्ध में कभी भी कोई जानकारी देना उचित नहीं समझा । सीमा की जब जब लखनऊ में कोई बात नहीं बन पा रही थी, तभी उसने पटेल से संपर्क साधा, और पटेल साहेब सीमा की मदद करने के लिए दौड़े दौड़े मेरे पास चले आये I        

 

जिस दिन सीमा मेरे फ्लैट में अपने सामान के साथ पहुंची, मैं उसे देख कर चौंक गया था, एक बेहद दुबली पतली मरियल सी लड़की, कद पांच फ़ीट से कम ही रहा होगा, श्यामल चेहरा, लगता था जैसे देह में जान थी ही नहीं, मैं थोड़ा हैरान तो हुआ, फिर मेरे मन में यह प्रश्न हुआ कि ऐसी लड़की की मदद  के लिए पटेल साहब क्यों और कैसे कर तैयार हुए, और वह भी उनसे स्वॅम कुछ नहीं  बन पड़ रहा था, तो पटेल ने बिना मेरी इजाजत लिए उसे मेरे फ्लैट का पता क्यों दिया और तो और, हद तो तब हो गयी जब उसने मुझसे पूछे बिना मेरे फ्लैट में आने का निमंत्रण तक दे डाला, पटेल ने मुझे अन्धकार में क्यों रखा? यह प्रश्न बार बार मेरे मनोमस्तिष्क पर छाया रहा, अब ये लड़की रहेगी कहाँ? मुंबई शहर में सबसे बड़ी समस्या तो एक छत की है, पटेल ने क्या सोचकर सीमा को मुंबई बुला लिया?

 

मेरे मित्र मेरे मन के भाव को ताड़ गए थे, कहा कि मैंने इसके लिए एक दो जगह पेइंग गेस्ट के लिए बात की है, जैसे ही प्रबंध हो जायेगा, सीमा चली जाएगी, तब तक.................! सिन्हा साहेब आप पर ही भरोसा कर मैंने इसे यहाँ बुलाया है? एक प्रकार से पटेल अपनी गलतियों को छिपाने के लिए मुझे आश्वासन दे रहा था या अपनी शर्मिन्दगी छुपा रहा था, इसे समझना आसान नहीं था, और चूंकि मुझसे नज़र मिलाने की हिम्मत तो हो नहीं रही थी, ये सारी बातें उसने बगले झांकते हुई कही I पटेल इतना सब कुछ कह कर चुप हो गया था I

 

पर मुझे यह बात समझ में नहीं आ रही थी कि  यह सारी बातें मुझे  शुरू में क्यों नहीं बतलाई गयी, मैं हैरान था, परेशान था, पर चूँकि  मामला लड़की का था इसलिए मैं सीधे सीधे बोलने में कठिनाई अनुभव कर रहा था, फिर भी मैंने अपने मित्र से इस सन्दर्व  में कुछ पूछने ही वाला था तब तक शायद पुनः पटेल ने मेरे मन कि बात भांप कर बोल पड़े, सिन्हा साहेब, चाहता तो मैं इसे अपने ही फ्लैट में रख लेता, पर आपको मेरे घर कि स्थिति तो मालूम ही है, आप पर  पूरा भरोसा रख कर ही मैंने इसे यहाँ का पता दिया, पर आप बिलकुल भी फ़िक्र न करें, बस , दो चार दिनों में सीमा का कोई ना कोई बंदोवस्त हो ही जायेगा  तब तक................! 

 

यह तो बिलकुल वैसा ही हो रहा था जैसे ""मान न मान मैं तेरा मेहमान ", वाली कहावत पूरी तरह से चरितार्थ हो रही थी I फिर भी मैंने बड़े बुझे दिल से हामी भर दी, पर मुझे क्या पता था था कि नियति में क्या रहस्य छुपा है? मैं तो शायद किसी मंथरा को अपने घर में आने कि दावत दे रहा था, सीमा क्या चीज थी, इसका पता तो धीरे धीरे चलना शुरू हुआ I और पटेल साहेब भी क्या चीज थे, यह रहस्य भी धीरे धीरे खुल रहा था, उन्होंने सीमा से कहा "सीमा तुम जब से आयी हो, तुमने सिन्हा अंकल का आशीर्वाद तक नहीं लिया, पता है, मुंबई जैसे शहर में एक छत कितनी  मुश्किल से मिलती है, यह तो सिन्हा साहेब जैसे इंसान अभी भी इस धरती पर हैं, नहीं तो तुम सपने में भी मुंबई आने के लिए सोच नहीं सकती थी"? इसी बीच पटेल ने बड़ी चालाकी से सीमा का सामन कब मेरे कमरे में शिफ्ट कर चूका था, उसने मुझे इसकी भनक तक नहीं लगने दी I

 

मैंने सोचा कि इस पटेल को आज हो क्या गया है? अभी अभी तो उसने कहा था कि दो चार दिनों की बात है, इस बीच सीमा के लिए कोई ना कोई पेइंग गेस्ट का प्रबंध हो जायेगा, और कहाँ उसने मुझसे पूछे बिना इसका सामन भी मेरे कमरे में रखवा दिया!

और तो और, हद तो तब हो गयी जब पटेल ने बिना मेरी अनुमति के मेरे ही लिविंग रूम के सोफे को सीमा का बेड एलान कर दिया, और कहा.......? "सिन्हा, सारा दिन तो सीमा काम पर जाएगी, अब तो रात में बस सोने की ही जगह तो चाहिए और ईश्वर की कृपा से तुम्हें कमी किस बात की है? आप टीवी देखना चाहेंगे तो आपके रूम में भी टीवी है, और तो और आपके लडके के कमरे में भी है, किसी को कोई तकलीफ नहीं होगी"..........?

 

पटेल  ने तभी बड़े ड्रामेटिक ढंग से सीमा कि ओर मुखातिव होते हुए बोला, "पता है सीमा, तुम्हें जो जगह मिली है उसकी  कीमत किराये में कम से कम इस लोकेलिटी में दस हजार से कम में कहीं नहीं मिलेगी, उस पर सिन्हा  के किचेन से तुम्हे दो वक्त की रोटी भी मिल जाएगी, मतलब, कम से कम बीस हजार तो तुम्हारा बिना कुछ किये ही बच गया, चलो एक बार फिर से अंकल के पाऊं छूकर  आशीर्वाद ले लो, अब यही तुम्हारे माँ  बाप सब कुछ हैं................?

 

मैं तो यह सोच सोच कर हैरान था की पटेल ऐसी हरकत कैसे कर सकता है, ठीक है, पटेल मेरा अच्छा दोस्त है, पर इसका ये तो मतलब नहीं कि वह मेरे ही फ्लैट में बिना मुझसे पूछे सारा 'डिसीज़न' स्वॅम लिए जा रहा है, एक तो कहाँ से एक लड़की को यहाँ लाकर डम्प कर दिया है, और अब वह कहाँ रहेगी, कहाँ सोएगी, सब तय कर दिया I

 

पटेल ने निश्चित रूप से मेरी प्राइवेसी पर प्रहार किया था, जिसका इसे कोई हक़ नहीं था, बिन बुलाये "मान न मान मैं तेरा मेहमान " कि तरह पता नहीं कहाँ से किस लड़की को बुला लिया और मेरे लिए कोई विकल्प तक नहीं छोड़ा, मेरी इंसानियत का जबरदस्त नाजायज फायदा पटेल ने उठाया है? और कहा जाये  तो मैं कायर की तरह चुपचाप पटेल कि सारी गति विधियां देखता रहा I  कभी कभी तो मुझे पटेल पर यह भी शक हो रहा था कि कहीं पटेल दलाली का तो धंधा तो नहीं करता है, पर इस तरह की दलाली, हाँ मैंने कहीं पढ़ा था या टीवी में देखा होगा कि नौकरी दिलाने के बहाने से ये दलाल लडके और लड़कियों को फंसाकर बड़े शहर में ले आते हैं, कहीं किसी की नौकरी अगर लग भी गयी तो एक मोती रकम ऐंठ कर गायब हो जाते हैं, पर यहाँ पटेल तो मेरी जान पहचान का है, वो भला ऐसी हरकत क्यों करेगा, फिर भी जेहन में आंधी की तरह यह प्रश्न उठता रहा कि आखिर पटेल क्यों इस मरियल सी लड़की की इतनी पैरवी कर रहा है? कोई उत्तर नहीं मिल रहा था मुझे, मैंने सोचा, चलो आगे चलकर देखते हैं, हकीकत तो सामने आ ही जाएगी I आश्चर्य तो तब हुआ कि इस मरियल सी दिखने वाली लड़की किस हद तक चालाक निकलेगी इसकी भनक तक लगने नहीं दी, पहली बार मुझसे इंसान को समझने में जबरदस्त भूल हो चुकी थी................?

 

आज मै सोचता हूँ कि मैंने उसी दिन क्यों नहीं मना कर दिया था, तब ये सारी घटनाएँ नहीं घटी होती, यह नियति थी, इस घटना को घटना था, हमें सबक मिलनी थी, आप तक ये "मान न मान मैं तेरा मेहमान " कैसे सामने आता? शायद इसलिए ज़िन्दगी की स्क्रिप्ट लिखने वाले ने चल चित्र के स्क्रिप्ट की तरह इस प्लाट की रचना कर दी थी, कभी कभी आप स्वॅम भी इतने लाचार हो जाते हैं कि अपने आप को नदी की धारा में प्रवाहित होने के लिए छोड़ देते हैं बिना किसी हश्र की परवाह किये बिना I हमारे साथ भी ऐसा ही हो रहा था, इस पटेल ने इस कहानी की पहली स्क्रिप्ट लिख दी थी? पर हमें क्या पता था कि पूरी कहानी की स्क्रिप्ट तो सीमा लिखने वाली थी, रोज एक नयी नयी ट्विस्ट के साथ, हम सभी उसके जाल में बुरी तरह फंसते जा रहे थे I

 

इसी बीच सीमा ने पूछा, "पटेल अंकल, आप आते तो रहेंगे ना"?  हाँ सीमा, मैं तो वैसे भी जब इधर आता हूँ, सिन्हा से मिलकर और एक कप चाय तो अवश्य ही पी कर जाता हूँ? पटेल ने मन ही मन सोचा कि अब मेरे आने को प्रयोजन ही क्या है? सीमा को सेटल करना था वह हो गया, बाकी के पैसे तो वह दे ही देगी, अब यहाँ मार खाने के लिए आना है क्या..........?

अच्छा सिन्हा, अब मैं चलता हूँ फिर आऊंगा, इतना कह कर पटेल वहां से चलता बना I

 

आज सीमा का साल्वे के ऑफिस ज्वाइन करने का पहला दिन था, एक कसी हुई चूड़ीदार और तंग कुरती पहनकर सीमा मेरे पाऊँ छूकर आशीर्वाद लेने आई, मैंने अपने लिविंग रूम में अपने स्पेसल चिर परिचित लाल रंग के इतालियन सोफे पर पैर फैलाकर लेटा हुआ था, हड़बड़ाते हुए मैंने कहा,"ये क्या कर रही हो तुम? मैं पैर नहीं लगवाता, यह मेरा वसूल है, और तुम यह किस तरह के पहनावे में आज पहले ही दिन ऑफिस जा रही हो, क्या ढंग का कोई सलवार - कमीज नहीं है, और जैसी कि मेरी आदत है, मैंने पहनावे पर भी लेक्चर देना शुरू हो ही चुका था .............!

 

सीमा बोली "अंकल मैं ड्रेस बदल लेती हूँ और आपका पहनावे पर का लेक्चर मैं ऑफिस से आने के बाद सुन लूंगी, मुझे देर हो रही है?

 

हाँ हाँ, आज पहला दिन है है तुम्हें समय से पहले ही पहुंचना चाहिए, जाओ एक 'ग्रेसफुल' 'ड्रेस' पहन लो. I

 

अंकल पर आपने अभी तक आशीर्वाद दिया नहीं, और बिना आपके आशीर्वाद लिए मैं जाने वाले नहीं?

 

अरे तुम ड्रेस चेंज तो कर लो, और मैं तो सबके लिए दुआ करता हूँ, फिर तुम्हारे लिए क्यों नहीं करूंगा, और हाँ, साल्वे को मेरा नमस्ते कहना मत भूलना.? सीमा ने मेरी बात मान ली थी, उसने ड्रेस चेंज कर मुझे पुनः प्रणाम किया और रिक्शा पकड़ कर बांद्रा की और चल पड़ी I मैं भी अपनी दिनचर्या में लग गया I

 

सीमा साल्वे के ऑफिस में पहुंची, और जैसा मैंने उसे समझाया था, पहुंचते के साथ ही साल्वे साहेब के पैर छूकर प्रणाम करना, ठीक वैसा ही सीमा ने किया, ये सारी बातें सीमा ने मुझे स्वमं ऑफिस से लौटने के बाद बड़े विस्तार से बतलाई थी I

 

सीमा ने कहा था कि "साल्वे साहेब ने तो शुरू शुरू में बड़े गर्मजोशी के साथ मिले, फिर उन्होंने कहा कि तो तुमने इंजिनीरिंग नहीं की है, तुम लॉ ग्रेजुएट हो, और तुम्हें सिविल मैटर का थोड़ा अनुभव है, पर यहाँ तो सारे 'केसेस' 'अर्बिटेरेसन' के हैं, और जो इंजीनियरिंग ग्रेजुएट है वही इसे 'हैंडल' कर सकता है, तुम्हारे लिए तो यहाँ कोई 'स्कोप' है ही नहीं, तुम तो बेकार में अपना समय बर्बाद करोगी, वैसे टाइम पास करने के लिए कुछ एक सिविल केस हैं जिसे  तुम देख सकती हो, अब सिन्हा साहेब ने तुम्हारे लिए कहा है, तो मैं तुम्हें बीस हजार रुपैये दूंगा, ये कुछ किताबें हैं, इनका अध्यन करो, कुछ नोट्स बनाओ  और एक वीक के बाद मुझे दिखलाओ, मैं अभी 'कंट्री' के बाहर जा रहा हूँ I

 

सीमा ने कहा" सर जब आपने मुझसे लखनऊ में फ़ोन पर बातचीत की थी, तब तो आपने ये सब नहीं बोला था, और अब सब कुछ छोड़ कर मैं आपके आसरे में आयी हूँ तो आप ये सारी बातें .....................!

 

साल्वे ने बीच में ही रोक कर कहा कि अभी तो मैं बाहर जा रहा हूँ, लौटकर आऊंगा तो मुझसे मिलना, इतना कह कर साल्वे साहेब चले गए" I 

 

मुझे कुछ समझ में बात आयी नहीं, साल्वे तो ऐसा व्यक्ति है ही नहीं, फिर उसे इतनी सारी बातें कहनी होती तो वह मुझसे कहता, क्या साल्वे सीमा को रखना नहीं चाहता है, वह सीधे सीधे सीमा से नहीं कह कर कहीं यह तो नहीं चाहता है कि सीमा ही काम छोड़कर चली जाये? क्या सीमा साल्वे के बारे में सच बोल  रही है या  यूहीं   बातें  बनाकर  झूठ  पर  झूठ  बोले  जा  रही  है  ? यह तो बाद में पता चला कि सीमा तो झूठ  बोलने  में भी उतनी ही शातिर और माहिर है, जब बाद में साल्वे ने स्वॅम सारी स्थिति  स्पष्ट कर दी थी मुझे I

 

मैंने सीमा से पूछा कि फिर तुमने सारा दिन क्या किया? 

 

बस ऐसे ही, कोई खास नहीं, मैंने कहा "सीमा, तुम बस डटे रहो, और काम सीखना शुरू कर दो, फिर देखते हैं कि आगे क्या होता है?

 

अब सीमा को एक सप्ताह तक तो इन्तेजार करना था साल्वे के लौट कर आने का, पर वह ऑफिस जाने के नाम के लिए  एक निश्चित समय पर सुबह में प्रति दिन नकलती थी, शाम को लौटने के बाद ऑफिस के तमाम गप्पें शप्पे, किसने उसके साथ पंगा लेने की कोशिश की, कौन कौन ऐसे लोग थे जिन्हें सीमा के आ जाने से उनके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, वैसी ढेर सारी  झूठ  - सच, मनगढंत कहानियां जिसे सीमा बड़े दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत करती थी, और उन पर यकीन नहीं करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था I

 

सीमा के रिश्तेदारों की संख्या भी कम नहीं थी, नाना, नानी, दो तीन मामा और मामी, और पता नहीं कौन कौन से मौसा, मौसी वगैरह वगैरह , पर एक अहम बात जो मेरे गले  नहीं पड़ रही थी वह यह कि इतने सारे रिश्तेदारिओं के रहते हुए सीमा मेरे यहाँ क्यों रुकी थी, मैं तो उसको ना ही  जानता था और ना ही उसका कोई रिस्तेदार था, फिर सीमा क्यों मेरे यहाँ ठहरी हुई थी, आखिर उसकी मंसा क्या थी, पटेल का क्या रोल था, ऐसे तमाम अनुत्तरित प्रश्न जेहन में कौंधते रहते थे?

 

पर मैं लाचार था, ऐसी भी क्या मजबूरी जकड गयी थी, क्या सीमा से कोई लगाव हो गया, वैसे भी मुझ जैसे बुजुर्ग  व्यक्ति को चलो कोई बात चीत करने वाला मिल गया था, मेरी पत्नी का देहांत हो चूका था और मैं बिलकुल ही अकेला हो गया था, अजीब सी असमंजस सी स्थिति  थी, पर एक बात स्पस्ट थी कि इस मरियल सी दिखनेवाली लड़की में कोई बात तो कहीं अवश्य रही होगी...........................?

 

मेरे ही फ्लैट के ठीक सामने वाले फ्लैट में एक बुजुर्ग मिस्टर रमेश पेशवानी अपने लडके समरेश के साथ रहा करते हैं, मेरी उनसे अच्छी खासी बनती थी, एक तो कॉमन कारण यह था की उनकी भी पत्नी का देहांत हो चूका था , लडके की उम्र तो हो चली थी  पर अब तक उसने शादी  क्यों नहीं की यह किसी को नहीं मालूम था,  वैसे भी मुंबई जैसे शहर में कौन क्या करता है, उसकी फ़िक्र करने की किसी को फुरसत कहाँ ? यहाँ तो भागम दौड़ लगी रहती है, लगता है कि सब कुछ भाग रहा है और आप् उसे पकड़ने के किये पीछे पीछे भागते जा रहें है, मंजिल की तलाश में, पर पता नहीं मंजिल मिलती भी है कि नहीं.......?

 

एक दिन बातों बातों में पेशवानी जी ने मुझसे पूछ ही लिया कि यह नयी लड़की को   मैं    कितने     दिनों   से   देख रहा हूँ, कौन   है यह? क्या करती  है? क्या आपकी कोई रिश्तेदार   है?

 

मैं  एक अजीब  सी  स्थिति  में अपने  आप  को  पा  रहा था, मैंने  उन्हें टालने  की नीयत  से कहा कि हाँ,  दूर  की रिश्तेदार  है, वकालत कर   चुकी  है, यहीं  मुंबई  से ही उसने  अपनी  पढ़ाई  की है, फिलहाल  मैंने उसे  साल्वे  की कंपनी  में रखवा  दिया  है,  साल्वे  को तो आप जानते  ही  होंगे , पर  उसकी  कम्पनी  अधिकतर  'अर्बिट्रेसन'    का  ही काम  लेती  है, और  यह ठहरी   लॉ ग्रेजुएट इसे 'एडजस्ट'  करने  में  कठिनाई  हो  रही है I

 

इतना    सुनना   था कि पेशवानी ने बड़े तपाक से कहा कि मेरा लड़का  समरेश भी तो लॉ ग्रेजुएट है, क्रिमनल लॉ में, कोई मल्टी नेसनल कंपनी में है, वह शायद इस लड़की की मदद कर सके, आपने अभी तक उसका  नाम नहीं बतलाया ?

 

सीमा नाम है उसका, मैं उससे कहूँगा कि वह आपसे और समरेश से अवश्य मिल ले I

 

हाँ हाँ जरूर, मैं समरेश को सीमा के बारे में बता दूँगा I

 

मै सोच रहा था कि रमेश को एका एक सीमा में इतनी दिलचस्पी क्यों हो गयी? क्या वे समरेश के साथ? यह मैं क्या सोच रहा था, पर मुझे क्या मालूम था कि "आ बैल मुझे मार वाली कहावत अब चरितार्थ होने ही वाली है I

 

साल्वे मुंबई वापस आ चूका था, जैस सीमा ने मुझे जानकारी दी, सीमा साल्वे से मिली भी थी, सीमा ने मुझसे कहा था कि अंकल "साल्वे साहेब तो वही पुराना राग आलाप रहें हैं, तुम्हारा यहाँ कोई भविष्य नहीं है, तुम व्यर्थ में अपना समय नष्ट कर रही हो? अंकल साल्वे साहेब मुझे इतना टॉर्चर कर रहें हैं कि मेरे समझ में कुछ आता नहीं कि मैं क्या करूँ? पर मैं इस बार लखनऊ वापस गयी तो फिर मैं शायद ही वापस आ पाऊँगी, और कौन सा चेहरा अपने 'पेरेंट्स' को दिखलाऊँगी? "आई एम रियली 'कन्फ्यूज्ड' अंकल"? सीमा ने इस बार अंग्रेजी में बोलकर मुझे 'इम्प्रेस' करने की कोशिश कर रही थी I

 

अच्छा सीमा, तुम्हारे 'पेइंग गेस्ट' का क्या हुआ? तुमने मुझसे कहा था कि तुमने एक दो एजेंट से बातें की है और उन्होंने तुम्हें आश्वासन दिया है? मैंने सीमा से पूछा?

 

सीमा बड़ी चालाकी से इसका जबाब टाल गयी, बोली" कहाँ अंकल, सुबह शाम उसे फ़ोन करती हूँ, बड़ी मुश्किल से मिल पाता है, हमेशा तोते जैसा रटा रटाया उत्तर,हाँ मैडम, मैं खुद ही आपको एक दो दिन में फोन करूंगा, आप टेंशन मत लो, मैं आपकी मीटिंग करा दूंगा, आप बस पैसे का प्रबंध  कर लीजिए, क्योंकि यहाँ चट मंगनी पट व्याह वाली बात है, एक एक जगह के लिए बस लाइन लगी रहती  है I

 

मैं तो अंकल हर ओर से परेशान हूँ? मैं आपको क्या जबाब दूँ, आप भी सोचते होंगे कि पटेल अंकल ने दो तीन दिनों के लिए कहा था और कहाँ यह 'ऑलरेडी' दस बारह दिन हो गए, पटेल अंकल का भी फ़ोन नहीं आया है, आप ही बतलाइये अंकल कि मैं क्या करू?

 

वाह, कितने चालाकी से सीमा ने अपना प्रॉब्लम मेरे ही सर पर मढ दिए था, जैसे मैं उसका कसूरवार हूँ साल्वे के यहाँ रखवा कर, शायद वह यह कहना चाहती होगी कि अगर आपने साल्वे के पास मेरी नौकरी नहीं लगवायी होती तो मुझे ये सब भुगतना नहीं पड़ता? अब ऐसी परिस्थिति में मैं किस मुहँ से कहता कि तुम अपने रहने का बंदोवस्त कहीं और कर लो. I मैंने सोचा कि क्यों नहीं इसे रमेश के हवाले कर दिए जाये, कम से कम मेरा दिमाग तो नहीं चाटेगी, फिर मैंने सीमा को रमेश और सुपुत्र समरेश के बारे में पूरी जानकारी दे ही डाली, सीमा का 'रिएक्सन' बस देखने लायक ही था, ऐसा लगा कि वह किसी ऐसे ही मौके की तलाश में थी, जिसे उसने दोनों हाथों से पकड़ - जकड़ लेना था I

 

पर वह बड़ी विनम्रता से बोली कि "अंकल आप मेरे लिए ये सारी कठिनाई अपने सर ले रहे हैं, जब कि मैं आपकी कोई भी नहीं लगती, अपने घर वाले, यहाँ तक मेरे 'पेरेंट्स' ने भी कोई 'हेल्प' करने से इंकार कर चुके हैं?, आप मेरे  कौन हैं अंकल ? निश्चित रूप से मेरा आपका पूर्व जन्म का कोई न कोई रिश्ता तो अवश्य ही रहा होगा?"

 

क्या इमोशनल ब्लैक मेल था, आप ऐसे में क्या करते? क्या कहते, कि सीमा ये फ्लैट छोड़कर चली जाओ और अपना बंदोवस्त कहीं और कर लो, मेरा तुम्हारे साथ क्या रिश्ता है? तुम्हारे नाना - नानी, मामा और भी कई रिश्तेदार हैं वहां जाकर रहो, नहीं तो वापस लखनऊ चली जाओ अपने पेरेंट्स के पास, पर मैं ये सब कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका, मैंने बल्कि सीमा को सांत्वना ही दी कि सब ठीक हो जायेगा, 'पेसेंस' रखो, शुरू शुरू में सभी को 'स्ट्रगल' करना पड़ता है, फिर "ऐज यूजुअल' मैंने उसे लेक्चर पिला दी, देखो अमिताभ बच्चन सात सात फ्लॉप पिक्चरें देने के बाद आज कहाँ है, ऐसे हजारों सैकड़ो 'एक्जाम्पल' हैं इस शहर में, जरूरत है धैर्य और कड़ी  मेहनत की, लगन के साथ, 'डेस्टिनी' साथ देगी तो एक दिन तुम्हारा भी 'टॉप' की अधिवक्ता में  नाम आएगा," I

 

सीमा ने कहा" थैंक्स अंकल, आपकी बातों से ही मुझे दम मिलता है, बस आपसे एक विनती है कि जब तक मेरा कहीं ढंग का ठिकाना नहीं हो जाता है, आप मुझे यहाँ से जाने के लिए नहीं कहोगे"?

 

मैंने एक अच्छे नागरिक और बुजुर्ग बनने की कोशिश करते हुए कहा, "सीमा, तुम जब तक यहाँ रहना चाहो रहो, आखिर तुम मेरी बेटी की तरह हो, किसी बात का टेंसन मत लो?"

 

सीमा तो बस इसी मौके की तलाश में थी, सुबकते हुए बोली कि अंकल आपके ऐसा इतना अच्छा इंसान, व्यक्ति मैंने नहीं देखा, एक अनजान लड़की पर आपने जितना भरोसा जताया है, मैं उस पर पूरी तरह से खरी उतरने की कोशिश करूंगी, अच्छा अंकल, अब मैं रमेश अंकल से मिल लूँ?

 

मैंने कहा, हाँ हाँ जाओ, उनके बेटे समरेश से भी मिलना, फिर मुझे सारी जानकारी देना I

 

सीमा के चले जाने के बाद मैं जैसे तन्द्रा से जाग कर उठा, ये मैंने क्या कर डाला, अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली, अब ये इस फ्लैट को छोड़ कर कहीं जाने वाली नहीं है, फ्री में रहना और खाना, वह भी बैठे बैठे सब सामने में हाज़िर, जब भी किसी चीज की जरूरत होती, हक़ के साथ आवाज देती, " पार्वती मुझे एक कप चाय और दो फ्राई अंडा दो, सब काम छोड़कर?

 

पार्वती शुरू से ही सीमा को पसंद नहीं करती थी, पता नहीं उसे क्यों यह लड़की पर कोई 'ट्रस्ट' नहीं होता था, वह हमेशा मुझे चेतावनी की तरह किसी आशंके की ओर आगाह करती, कहती, साहेब इस लड़की को निकालो, नहीं तो यह पूरे घर को बर्बाद कर देगी, उसका इशारा किस ओर था, ये भी मैं समझ रहा था, पर पार्वती कभी खुलकर कुछ भी बोलने से कतराती रही? एक बात का डर उसे हमेशा था कि यह लड़की मुझे बदनाम करने की पूरी कोशिश में है, बस मौके की तलाश में है, कहती, "मेम साहेब अभी जिन्दा रहती, तो क्या मजाल था कि एक मिनट के लिए भी यहाँ यह कदम भी रखने की जुरर्रत करती?"

 

पार्वती की बातों में कहीं दम तो अवश्य था, जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि मेरे घर में मंथरा का प्रवेश हो चूका है, तो मेरी भी मति मारी गयी थी, मैं सीमा की हर बातें आँख मूँद कर विश्वाष कर लेता थाI

 

सीमा   सामने  वाले  फ्लैट  में  रमेश  से  मिलने  गयी , उसने  रमेश  पर  भी  वैसा  ही  मोहनी  मंत्र  फेंक  दिया था,, बोलने  में  तो  वह  माहिर  थी  ही , समरेश  से   उसने  अच्छी  खासी दोस्ती  बना  ली  थी , चूंकि  दोनों  एक  ही  प्रोफेशन  में  थे , इसका  फायदा  सीमा  निशित  रूप  से  उठा  रही  थी I

 

पर  धीरे  धीरे  रमेश  को  यह  नागवार  लगने  लगा,सीमा से उसका मोह भांग हो चूका था, सीमा  शाम  में  पता  नहीं  कहाँ  से  आती , मुझसे हाई हेलो  करती और  पार्वती से फरमाइश कर अंडा, ब्रेड, चाय, कॉफी, जो भी मन में आता, सीधे आर्डर करती, फिर वह रमेश के फ्लैट में जाती और सीधे समरेश के कमरे में जाकर बंद हो जाती, 'एक्सेक्यूज' यहाँ था कि 'एयर कंडीशनर' चालू हैं इसलिए दरवाजा बंद हैं, और बंद कमरे में क्या हो रहा हैं या नहीं, सभी अपने अपने तरीके से मतलब निकालते, पर एक बात तय थी कि यह हरकत किसी को भी  रास नहीं आ रहा था, पर सभी पता नहीं क्यों मजबूर थे, मेरी भी वही स्थिति  थी, अब हमेशा मन में एक ही प्रश्न आता की इसे निकला कैसे जाये, क्योंकि मामला एक लड़की का था, उसपर भी 'लॉयर', बड़ी पेचीदा सी 'सिचुएसन' हो चली थी I

 

पटेल से जब भी बातें करता, वह उलटे ही नसीहत देता, सीमा वैसी लड़की नहीं हैं, फिर मैं उसके लिए 'पेइंग गेस्ट' की व्यवस्था में लगा हुआ हूँ, मुझे समय दीजिये, सिन्हा साहेब, आप तो वाकिफ हैं सब कुछ से मुंबई शहर के बारे में, जहाँ इतना दिन धैर्य रखा है वहां थोड़े दिन और 'वेट' कर लीजिये, सब कुछ अपने आप सही लाइन पर आ जायेगा, आप मुझ पर ट्रस्ट करते हैं ना, तो बस इत्मीनान रखिये, मैंने जब सीमा को आपके यहाँ  रखा है तो सारी जिम्मेवारी मैं लेता हूँ,

 

"नाउ एवरीथिंग इज़ ओके" सी यू लेटर ऑन” I

 

मैं निढाल होकर अपने इतालियन सोफे पर लेट गया और पार्वती को एक कड़क चाय बनाने के लिए कहा,?   पार्वती हमारी बात चीत सुन रही थी, उसने चाय लाकर दी साथ ही नसीहत भी,"साहेब मैं तो आपको पहले दिन ही बोली कि इस लड़की को यहाँ से निकालो, मुझे इस पर शुरू से ही भरोसा नहीं था, इसके लक्षण अच्छे नहीं हैं, जिसकी अपने माँ - बाप से नहीं बनती हो, नाना - नानी -, मामा- मामी और भी ना जाने  कितने रिश्तेदारों के रहते हुए यहाँ आकर पडी हुई है, आपसे ना तो कोई रिश्ता  ही  है और ना यहाँ आने के पहले से आप इसे जानते थे, यह तो आपका धूर्त दोस्त ना जाने क्या सोचकर आपके पास लाकर रख दिया है, मैं तो साहेब, कम पढ़ी लिखी हूँ,  'छोटी  मूहँ बड़ी बात', मैं यहाँ दस वर्षों से हूँ, पर ऐसा कभी नहीं देखा, काश मेम साहेब  होती, फिर किसी की क्या मजाल थी ?

 

पार्वती की बातों ने मुझे झकजोर कर रख दिया था, एक बात तो बिलकुल ही सही थी कि मेरी पत्नी के रहते कभी किसी ने अपनी दाल गलाने की जुर्रत तक नहीं की, और आज.जब वो नहीं है तो? मैं अपने आप को लाचार अनुभव कर रहा था.I क्यों नहीं मैं अपने को वैसा 'स्ट्रांग' महसूस नहीं कर रहा था, जैसा कि मैं अपनी पत्नी के रहते अपने आप को 'फील' करता था, मुझे एक एहसास हो रहा था कि मेरा जो वजूद था अब तक वह मेरी पत्नी के 'सपोर्'ट पर था, यह कैसी नियति है कि हम हकीकत को जीते जी  समझ नहीं पाते हैं या यू कहें तो अपने अहंकार के कारण स्वीकार करना नहीं  चाहते, और इसी खामियाजना का भुगतान आज मैं कर रहा था I

 

आज जैसे ही सीमा बाहर से आयी उसने लगभग ख़ुशी से चिल्लाते हुए कहा" अंकल, अब सब की परेशानी दूर हो जाएगी, मैं समझ नहीं पाया कि सब की से क्या मतलब है, मैंने पूछा कि ऐसी भी क्या अनहोनी हो गयी सीमा, जरा विस्तार से बतलाओ?

 

सीमा ने कहा कि "मैंने ‘इनफ़ोसिस’ पूना में इंटरव्यू दिआ था, वहीँ से दीपक, जिसने मेरी बहुत मदद की थी, फ़ोन किया था, बोला कि सीमा तुम्हारा 'सेलेक्सन' फाइनल हो गया है, बस कुछ 'फोर्मलिटीज़' रह गयी है,'मोस्ट लाइकली' इस 'वीक' तक तुम्हें 'कन्फर्मेशन' 'लेटर' मिल जायेगा" I 

 

मैंने सीमा को 'कोंग्रेचुलेसन' दिया और यह भी 'कॉम्प्लिमेंट्स' दिया कि आखिर तुम्हारी मेहनत रंग लाई, चलो, एक नयी ज़िन्दगी जीने की और अग्रसारित होने के लिए अपने आप को तैयार करो, तुम्हारे जाने के बाद हमें तुम्हारी कमी तो अवश्य खलेगी? पर इसी का नाम तो ज़िन्दगी है, आज यहाँ तो कल पता नहीं कहाँ?

 

सीमा बस मुस्कुरा दी, उसकी मुस्कराहट में कोई राज छुपा हुआ था, जिसे उस समय मैं समझ नहीं पाया, पार्वती वहीँ पर थी, उसने सीमा के तुरंत जाने के बाद मुझे आगाह किया, साहेब देख लो इसकी ये नयी चाल, अब ये पूना के नाम पर पता नहीं कितने दिन या परमानेंटली रूकने वाली है, और साहेब जिसे बैठे बैठाये, मुंबई शहर में फ्री रहना  और खाना मिल रहा हो वह भला ये सब छोड़कर बाहर जाकर इतनी जेहमत क्यों लेगा ?

 

"मैंने पार्वती को लगभग डांटते हुए बोला कि उसकी बातों पर यकीन नहीं करने का क्या कारण हो सकता है, तुम शुरू से ही उसको शक कि नज़र से देखती आ रही हो? अरे किसी की जरूरतमंत की मदद करना इंसानी फर्ज है" I

 

ठीक है साहेब आप अपनी इंसानी फर्ज निभाओ, जिस दिन ये लड़की धोखा देगी, उस दिन आपको मेरी बात समझ में आएगी.?

 

मैंने कहा, हो गया तुम्हारा लेक्चर, अब जल्दी से एक कप चाय बनाकर ले आओ.और ये सीमा कहाँ गयी?

 

और कहाँ जाएगी, वही रमेश जी के लडके समरेश के पीछे, अब तो सारा दिन बस जब मौका मला, उसके आगे पीछे नाचती रहती है?

 

पार्वती तुम मुझे एक बात बतलाओ कि सीमा से तुम इतनी खफा क्यों हो?

 

साहेब मुझे इसका तो पता नहीं, पर आपने कभी इसकी आाँखों की चमक और उसके पीछे राज को समझने की कोशिश की है? बस मुझे पहले ही दिन से इस पर एक शक हो गया कि यह सही लड़की नहीं है? पर साहेब मैं गलत भी हो सकती हूँ, यह मेरा निजी विचार है?

 

मुझे  पार्वती से इस विषय पर इतनी  लम्बी बात करनी चाहिए थी या नहीं, पर वह आज दस बारहों वषों से यहाँ काम कर रही है और कभी भी कोई  गलत काम नहीं किया है, एक तरह से 'फैमिली मेंबर' की तरह रहती है, मेम साहेब की बीमारी में इसने जो सेवा की, वह शायद कोई सगा भी नहीं करता, मेरी पत्नी ने कहा था, पार्वती तुमने  मेरी सेवा  बेटी जैसी  की हो, उसे हमेशा अपने बराबर में बैठाती  थी, कोई  भेद भाव नहीं, शायद उसी का यह नतीजा हो सकता है कि वह इस घर की तबाही नहीं देख सकती थी, हमारे पैसे खुले अलमारी, डब्बे में रहते, पर आज तक कभी भी एक पैसा इधर से उधर नहीं हुआ? हो सकता है कि यह एक कारण हो कि मैं उसकी बात सुनने के लिए वाध्य हो जाता I

 

समय व्यतीत हो रहे थे, रमेश की अपनी परेशानियां थी, आज पूना वाली बात को बीते हुए पंद्रह दिन हो चुके थे, सीमा ने दोबारा उस पर चर्चा नहीं की थी, मेरे कप बोर्ड से दस हजार रुपैये गायब थे, मैं परेशान था कि आखिर मेरे पैसे कहाँ गए होंगे, मैं किस पर शक करूँ, अपने स्टाफ पर या फिर सीमा पर, जो अक्सर मेरे रूम में आती जाती रहती थी, क्योंकि उसका सामान मेरे ही कमरे में थाI मेरी समझ में कुछ आ नहीं रहा था I 

 

एक दिन शाम  को मैने देखा कि एक लड़का और लड़की, सीमा को सहारा देकर मेरे फ्लैट में लेकर आये, उन्होंने मुझे साल्वे की एक चिठ्ठी दी, सीमा रो रही थी,  सीमा के अनुसार उसके आर्थराटिस का दर्द उसे परेशान कर रहा था, पर साल्वे ने तो कुछ और ही बात लिखी थी, लिखा, "सिन्हा साहेब, मुझे अफ़सोस है कि मैं सीमा को वापस भेज रहा हूँ, मैंने बहुत कोशिश की, ये कुछ सीखे, पर ये तो अपना सारा समय मोबाईल पर ही काटती रहती है, इसे किसी भी अपने 'कलीग' से नहीं बनती, और आज तो इसने तमाशा ही खड़ा कर दिया, मेरे ऑफिस का सारा माहौल बस इसकी ही चर्चा में लगा रहता है, खुद तो कुछ करती नहीं और दूसरों को भी काम नहीं करने देती, मुझे अफ़सोस है पर मैं लाचार हूँ, जितने दिन सीमा मेरे ऑफिस में समय काटी उसके पैसे मैं भेजवान दूंगा, साल्वे"I

 

इधर सीमा दहाड़ मार मार कर रो रही थी और साल्वे को कोसे जा रही थी, पहले तो मैने उन लड़कों और लड़कियों को धन्यबाद देकर वापस भेज दिया, फिर सीमा की और मुखातिव हुआ, सीमा ने भरपूर ड्रामा कर मेरी 'सिम्पेथी' जीतने की कोशिश किये जा रही थी, बोली, "अंकल मैंने आपसे पहले नहीं कहा क्यों कि साल्वे साहेब आपके दोस्त हैं, पर पहले दिन से ही वे चाहते थे कि मैं यहाँ से चली जाऊं, मैंने पूरी मेहनत की, पर साल्वे साहेब मुझे हमेशा टॉर्चर करते रहे, तुम्हें कुछ नहीं आता, तुम्हें 'साइक्ट्रिक' की जरूरत है, आपको मैं पागल लगती हूँ अंकल ?

 

मैं 'सिचुएसन' समझने की कोशिश कर रहा था, पर सीमा अपने ड्रामें में मुझे पूरी तरह से उलझा ली थी, और तो और, मैंने  पार्वती से कहा कि इसे गर्म दूध और अंडा दे खाने को ?

 

धीरे दिए सीमा का कॉन्फिडेंस वापस आ रहा था, और थोड़ी देर में तो वह बिलकुल ही नार्मल थी, जैसे कुछ हुआ ही ना हो? सीमा ने मुझसे पूछा कि "अंकल साल्वे साहेब ने क्या कहा"?

 

"कुछ नहीं सीमा, तुम्हें वहां अब जाने की कोई जरूरत नहीं है, वह अब तुम्हें टॉर्चर नहीं करेगा, मैंने ही साल्वे को मना कर दिया हूँ कि सीमा अब नहीं आ पाएगी,साथ ही  मैने साल्वे साहेब का शुक्रिया भी  अदा कर किया" I

 

अच्छा हुआ अंकल, मैं भी वहां जाना नहीं चाहती, समरेश ने मुझे अपनी ही कंपनी में, मेरा मतलब है जिस कंपनी में वह काम करते हैं, वहाँ पर मेरे लिए एक जॉब देखा है? मैं अभी समरेश से उसी सिलसिले में मिलने जा रही हूँ?

 

मैं तो हैरान था यह सोच सोच कर जैसे थोड़ी देर पहले कुछ हुआ ही नहीं था, क्या यह सब ड्रामेबाजी थी? जैसे ही सीमा सामने वाले फ्लैट में गयी कि पार्वती ने कहा, "देख लिया साहेब, कितनी बड़ी ड्रामेबाज है, कहाँ तो यह चल नहीं पा रही थी, और कहाँ..................? बोलते बोलते वह रूक गयी?

 

क्या बोल रही थी तुम पार्वती? मैंने पूछा?

 

"छोड़िये साहेब, अब मैं क्या क्या आपको बतलाऊं, पूरे सोसाइटी में आपका नाम बदनाम हो रहा है? सभी कोई यही एक सवाल करते हैं कि सिन्हा साहेब ने किस लड़की को अपने यहाँ रख लिया है जो उम्र में उनसे आधी से भी काम है, और कैसी मरियल ...................?

 

अब मैं और क्या क्या बोलूं, मुझे तो बोलने में भी शर्म आती है, आप स्वॅम समझदार हैं, आपको मैं क्या बोलूं?

 

इतना कह कर पार्वती तो चुप हो गयी पर मेरे लिए एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह पैदा कर गयी थी................?

 

सीमा का रवैया वैसा ही था, बेशरमी की हदें पार की जा रही थी, बेचारा रमेश दुखी होकर मेरे पास आता और अपना दुखड़ा रोता, सिन्हा साहेब कुछ सोचिये कि इस लड़की को यहाँ से कैसे निकाला जाये, मैंने उन्हें समझने की कोशिश की, लड़की का मामला है, तूल पकड़ सकता है, हमारे ऊपर गलत इल्जाम लगा सकती है, और तो और, खुद ही वकील भी है? देखते हैं, कोई ना कोई उपाय तो निकल आएगा ही, आप धैर्य रखिये. I

 

दूसरे ही दिन मैंने सीमा से पूछा कि तुम्हारे पेइंग गेस्ट का क्या हुआ, कोई हल निकला? क्या कहा एजेंट ने?

 

कहाँ अंकल, वह तो जल्दी मिलता ही नहीं फ़ोन पर, मैं लगी हुई हूँ, आप टेंसन मत लीजिये?

 

मैंने कहा कि "अच्छा मुझे उस एजेंट का मोबाईल नंबर दो, मैं बातें करता हूँ?

 

ठीक है अंकल, फिर उसने एक नंबर पेपर पर लिख कर दे दिए, मैंने पूछा कि उसका कोई कार्ड वगैरह नहीं है क्या?

 

नहीं अंकल, था तो पर पता नहीं मैंने कहाँ रख दिया है, वैसे मैंने कितनी बार फोन का चुकी हूँ कि मुझे तो उसका नंबर ही याद हो गया है I

 

तभी मुझे याद आया, रमेश ने एक दो नंबर दिए थे एजेंट के, मैंने उनका विजिटिंग कार्ड निकलते हुए कहा कि ये कुछ अच्छे एजेंट का नंबर है, उनसे 'कांटेक्ट' करो, शायद तुम्हारा काम बन जायेगा. I

 

ठीक है अंकल, मैं उनसे कांटेक्ट कर आपको सूचित करूंगी. I

 

अगले दिन रमेश सुबह सुबह ही मेरे फ्लैट में आ धमका, पूछा की तुमने सीमा को एजेंट का नंबर दिया था ना, मैंने कहा, हां, मैंने दे दिया है और उसके एजेंट का भी नंबर ले लिया है,

 

ठीक है फिर पहले उसके एजेंट को ही फ़ोन करते हैं, हम दोनों सारा  दिन उस 'इनविजिबल' एजेंट को फ़ोन मिलाते रह गए, पर कोई इस नंबर पर होता तब ही तो फ़ोन उठाता, इसका मतलब यह हुआ कि आज तक सीमा हमें बेवकूफ बनाती  रही, सीमा ने किसी एजेंट से कभी संपर्क साधा ही नहीं था,  अब तो एक ही विकल्प बच रहा था,  हमने जो नंबर उसे दियें  हैं, उस पर सीमा क्या करवाई करती है, पर इसके लिए तो एक दो दिन हमें इन्तेजार तो करना ही पड़ेगा. I अंततः यह तय किया हमने कि दो दिनों के बाद सीमा से पूछ ताछ करेंगे और इन एजेंट को भी कॉल करेंगे कि सीमा ने कोई कांटेक्ट किया कि नहीं?

 

दो दिनों के बाद मैंने सीमा से पूछा "सीमा, तुमने उन एजेंटों से बात चीत की?"

 

हाँ अंकल, एक से तो मेरी बात हुई क्या नाम है उसका, हाँ खरे, उसने तीन चार दिनों में कहा है कि फ़ोन करेगा, बाकी से तो बात हो ही नहीं पाई, वही मोबाईल नेटवर्क का रटा रटाया जबाब, "दिस नंबर डॉज नॉट एक्सिस्ट, प्लीज़ चेक द नंबर" ?

 

ठीक है, फिर खरे के फ़ोन का 'वेट' करो और बीच बीच में उसे रिमाइंड   करते रहो?

 

जी अंकल, अब मैं जाऊँ, मुझे समरेश के ऑफिस में जाना है, वहां आज मेरा इंटरव्यू है I  

 

अरे यह तो बड़ी अच्छी खबर है, "में गॉड ब्लेस यू"? अरे सीमा, बहुत दिन हो गए, पूना वाला क्या हुआ?

 

जी अंकल, वहां कोई नया 'एम डी' आया है, वह फिर से पेपर्स वगैरह चेक कर रहा है, मुझसे 'रिज्यूमे' फिर से भेजने को कहा गया, मैंने भेज दिया है, अब आगे देखें क्या होता है?

 

अच्छा अच्छा, सब ठीक ही होगा, ईश्वर पर भरोसा रखो, और समरेश के ऑफिस में अच्छा इंटरव्यू देना. I

 

जी अंकल, इतना कह कर सीमा वहां से निकल पडी, उसके निकलते ही रमेश धड़ल्ले से मेरे फ्लैट में पहुंचा, क्या खबर है सिन्हा?

 

रमेश, खबर तो अच्छी नहीं है, फिर मैंने उसे विस्तार से सारी बातें बतलाई और कहा कि अब तुम तैयार रहो, सीमा का नेक्स्ट पड़ाव तुम्हारा ही फ्लैट होने वाला है?

 

अच्छा अच्छा पहले खरे से बातें करते हैं, हमने खरे से बातें की, उसने कहा कि मेरे पास तो कोई सीमा नाम की लड़की नहीं आयी, फिर हमने सीमा के मरियल देह दशा का वर्णन किया, पर खरे साफ़ साफ़ शब्दों में इंकार कर गया कि ऐसी कोई लड़की उसके पास आयी भी थी I

 

हम दोनों एक दूसरे की आँखों में झांक कर यह प्रश्न एक दूसरे से कर रहे थे अब क्या? आखिर सीमा की मंशा क्या है?

 

मैंने स्पस्ट शब्दों में कहा कि, रमेश, सावधान हो जाओ, अब तुम्हारी बारी है, यह अपने लड़की और वकील होने का भरपूर फायदा उठा रही है?

 

रमेश बहुत ही घबड़ाया सा था, वह अपने बेटे से कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं रखता था, सीमा ने समरेश को अपने जाल में आखिर फंसा ही लिया था?

 

दूसरे दिन सबसे पहले मैंने पटेल को फ़ोन कर उसे सारी जानकारी दी, पटेल तो साफ़ साफ कोई भी जिम्मेवारी लेने से मुकर गया, बोला, सिन्हा साहेब, मैं खुद भी बहुत ही शर्मिंदा हूँ, यह लड़की तो मुझे भी चूना लगा चुकी है, मैं समझा नहीं पटेल, तुम्हें किस बात की चूना उसने लगाई?

 

पटेल ने कहा कि वह मैं फिर कभी आपको बतलाऊँगा, फिलहाल तो अब हम सभी को मिलकर कोई तरकीब निकालनी होगी, आप और रमेश जी जो भी कदम उठाएंगे, मैं आपके साथ हूँ, पर हाँ, एक बात हमेशा ध्यान में रखियेगा, कि लड़की का मामला है, सारे कानून इन्हीं के पक्ष में बनाये गएँ हैं जिनका ये बेतरतीब ढंग से से गलत फायदा उठती आ रही है?

 

ठीक है पटेल, अब तुम्हें भी हम क्यों कोसें, जब अपनी ही तकदीर धोखा दे रही है I

 

इसी बीच मुझे कुछ काम से दिल्ली जाना पड गया,काम कुछ लम्बे समय का था, मैंने पांच हज़ार रुपैये पार्वती को घर के खर्चे पानी  के लिए दिए थे, ,चूंकि  मुझे ताला वगैरह लगाने की आदत तो थी नहीं, जब पत्नी थी तो सारा जिम्मा उसी का था, मैं तो इन सभी चीजों से बेखबर अपनी दुनियां में जीता था, सभी को पता रहता था की मैं पैसे कहाँ रखता हूँ, पार्वती भी इन खर्चों के पैसे मेरे एक दूसरे कप बोर्ड जो हमशा खुला रहता था, उसी में रखती थी, सभी को इस बात की जानकारी थी, सीमा को भी इसकी जानकारी थी I मैं  पार्वती और सभी स्टाफ को सारी हिदायतें देकर दिल्ली चला आया I

 

मेरे ठीक दो तीन बाद ही ग्यारह - बारह बजे के आस पास    पार्वती का फ़ोन आया, पार्वती फ़ोन पर दहाड़ मार कर रो रही थी, रोते रोते बोली" साहेब आपने जो पांच हज़ार रुपैये दिए थे, वह चोरी हो गयी है, अब सारा इल्जाम तो मेरे ही सर पर आएगा, साहेब मैं आज इतने वर्षों से यहाँ काम कर रही हूँ, ऐसा तो कभी नहीं हुआ?

 

पहले तो मैंने उसे शांत करने की कोशिश की, कहा कि कोई इल्जाम तुम्हारे ऊपर नहीं लगाएगा, तो तुम क्यों टेंशन में हो, पैसा किसी और ने लिया है, और वह सीमा को छोड़कर कोई दूसरा हो ही नहीं सकता?

 

पार्वती को मेरे बातों से उसका 'कॉन्फीडेंस' वापस आया, बोली "साहेब, आप बराबर बोलते हैं, मैं तो डर के कारण सीमा का नाम नहीं ले रही थी, पर मेरे जाने के बाद सीमा ही कमरे में आयी थी और कोई नहीं, मैंने सीमा से बोल दिया है कि रुपैये तुम ने ही ने चुराएं हैं, मैं बड़ा साहेब को रिपोर्ट कर रही हूँ?

 

मैंने फिर उससे कहा कि अब तुम कुछ भी नहीं करोगी, जो करना होगा, मैं करूंगा I

 

मुझे गुस्सा इतना आ रहा था कि मैंने किसी तरह अपने आप को संतुलित किया, बहुत सोच विचार करने के बाद, मैंने सीमा को 'टेक्स्ट' किया, "सीमा पैसे किसने लिए हैं यह तुम्हें और मुझे सभी को मालूम है, तुम पार्वती पर गलत इल्जाम लगाकर उसे इस घर से निकलवाना चाहती हो, पर इस बार तुम्हारा यह दावं तुम्ही पर उलटा पड गयाI तुम पार्वती को नहीं जानती? पार्वती ने तुम्हें साफ़ साफ़ कह दिआ है कि रुपैये तुम्हीं ने चुराए हैं? तुम उसके आदमी को नहीं जानती, उसने मुझसे बात की है कि वह तुम्हारे खिलाफ ऍफ़ आई आर दर्ज करने जा रहा है?

 

फ़िलहाल मैने उसे रोक दिया है, पर वह  बड़ा  ज़िद्दी टाइप का आदमी है, वैसे भी तुमने जो हरकत की है, उसके बाद मेरे घर में तुम्हारे लिए अब कोई जगह नहीं बचती है ,मैं तुम्हें शाम तक का टाइम दे रहा हूँ, शाम के पहले तुम अपना बोरिया विस्तर समेट कर दफा हो जाओ, अन्यथा, अगर तुम्हारे विरुद्ध  पार्वती या उसका आदमी कोई  'ऍफ़ आई आर' दर्ज करता है, तो तुम्हारी कोई भी वकालत काम में नहीं आएगी, इसे तुम मेरी चेतावनी भी समझ सकती हो, शाम सात बजे तक मुझे 'कंप्लायंस' रिपोर्ट चाहिए" I

 

सीमा को जब यह टेक्स्ट मिला तो पहले उसे विस्वाष ही नहीं हुआ कि यह टेक्स्ट मैंने उसे भेजा है, वह लगभग दौड़ते हुए समरेश के पास पहुंची कहा कि यह टेक्स्ट पढ़ो?

 

अंकल ने जो टेक्स्ट भेजा है, वह सब मुझे निकलने की साजिश है? तुम मुझे फिलहाल अपने फ्लैट में रहने की इजाजत दो, नहीं तो मैं कहाँ जाऊँगी?

 

समरेश समझदार इंसान था, उसने सीमा से कहा कि मुझे यह बताओ कि तुम किस हैसियत से वहां रह रही थी, और सच में तुमने पैसे चुराएं हैं? यदि तुम सच मुझे नहीं बतालाओगी तब तक मैं तुम्हारी कोई भी मदद नहीं कर पाऊंगा?

 

सीमा के पास कोई विकल्प नहीं था, उसने सारी बातें समरेश को विस्तार से बतला दी, साथ में यह भी कबूल कर लिया कि हाँ वह पैसे मैने पार्वती को सबक सिखलाने और उस घर से निकलवाने के लिए चुराए थे, ताकि इल्जाम पार्वती पर ही लगेगा ऐसा मैंने सोचा था? मेरे ऊपर कोई भी शक क्यों करेगा? यहाँ तक कि अंकल के दस हज़ार रुपैये भी मैने इसी मकसद को पूरा करने के लिए किये चुराए थे?

 

समरेश ने काफी देर तक सोचा, फिर उसने कहा कि मैं अपने डैडी से बात कर लूँ फिर तुम्हें बताता हूँ क्या करना चाहिए?

 

सीमा ने कहा कि मैं भी चलूँ?

 

नहीं, अभी नहीं? पहले मुझे बात कर लेने दो?

 

समरेश ने अपने डैडी से 'डिटेल' में सारी बातें की, रमेश शायद इसी मेक की तलाश में था, उसने शुरू से आखिर तक, सीमा की सारी हरकतों का पर्दा फ़ांस कर ही डाला?

 

समरेश हैरान था कि सीमा ने तो सारी झूठी मनघडंत कहानी उसे बतलाई थी, उसके डैडी सही थे,  उसने बहुत ही समझदारी के साथ डिसीज़न लिया I

 

समरेश ने सीमा से कहा" देखो सीमा, अभी सिचुएसन तुम्हारे खिलाफ है, डैडी को भी सारी कहानी मालूम है, ऐसी परिस्थिति में या तो तुम अपने किसी दोस्त या रिश्तेदार के पास तुरंत चली जाओ, बल्कि मैं तो कहूँगा कि अभी इस सीन से हीबाहर निकल जाओ, लखनऊ की टिकट लो, घर वापस जाओ, पैसे जो तुमने चुराएं हैं, वह तुम्हारे पास ही है, और गलती से भी हम में किसी को भी फ़ोन मत करना, मैं सिन्हा साहेब को बहुत ही अच्छी तरह से जानता हूँ, फ़ौजी भी रह चुके हैं, एक बार जो ठान ली, बस ठान ली."

 

तुम चलो, मेरे सामने अंकल के फ्लैट से अपना सामन लो, मैं पार्वती को भी बुला लेता हूँ, उसके सामने फ्लैट छोडो, वह भी इत्मीनान हो जाये कि तुम केवल अपना सामन लेकर जा रही हो. I

 

सीमा ने वैसा ही किया, बल्कि जाने के समय उसने  पार्वती को एक हज़ार रुपैये देने की पेशकश की,  पार्वती ने उसे वो रुपैये वापस करते हुए कहा कि सीमा, रुपैये देना ही है तो पूरे दस और पांच, पंद्रह हज़ार दे दो तो मैं ले लूंगी, बड़े साहेब का पैसा लौटा देना, जिस इंसान ने तुम्हारी इतनी मदद  की, बेटी की तरह रखा, बिन बुलाये मेहमान को,मान न मान, मेरा तेरा मेहमान मान लिया, तुमने उन्हीं के पीठ में छूरा घोंप दिया, ईश्वर तुम्हें कभी माफ़ नहीं करेगा I

 

खैर, समरेश साहेब के कहने पर जा रही हो, नहीं तो तुम्हारी शाम आज जेल में बीतती?

 

सीमा ने अब कुछ भी कहना उचित नहीं समझा, पानी सर के ऊपर से गुजर चूका था, और बिन बुलाये मेहमान का केवल अंतिम संस्कार ही बाकी था...............?

 

मुझे एक एस.एम.एस भेजकर सीमा ने औपचारिक तौर पर माफी मांगी, लखनऊ के टिकट का फोटो 'व्हाट्स एप' कर दिया, और जिसने 'मान न मान मेरा तेरा मेहमान' बनने की कोशिश की, केवल एक गलत चाल में फंस कर रह गयी.....................?

 

मैं यही सोचता रहा, यदि सीमा ने यह एक गलती नहीं की होती तो क्या वह कभीयहाँ से जाती, क्या हम उसे निकाल पाते?, क्या समरेश सीमा से शादी कर लेता और फिर रमेश का क्या होता ?

 

ऐसे  ढेर सारे अनुत्तरित प्रश्न आते और जाते रहें, पर एक बात थी कि हमने सीमा को समझने में भूल की या फिर हमने स्वार्थ में उसे पनाह दे दी, हमें 'कंपनी' की जरूरत थी, हमें लगा के सीमा के रहने से थोड़ी बहुत कंपनी तो मिल ही जाएगी, पर हम उसकी मंशा को समझ नहीं पाये, बाद में पता चला कि वह ऐसे ही ऐसे घर को निशाना बनाती रही हैं, जिस घर में कोई बुजुर्ग अकेला रहता हो, उसकी पत्नी नहीं हो, यदि उसका कोई लड़का हो भी तो  किसी भी कारण से बैचलर हो, कहने का तात्पर्य  यह कि वह पूरे तौर पर सर्वे करने के बाद ही अपने एजेंट को कांटेक्ट करती  और फिर अपने  वकील  तथा मरियल सी दिखने वाली लड़की होने का फायदा उठाती I

 

पता नहीं आज सीमा कहाँ और किस परिस्थिति में है, अथवा किसी घर को लूट रही होगी, ऐसे कितने पटेल के साथ उसकी साथ गाँठ होगी, इन प्रश्नों का उत्तर शायद नहीं मिले, पर एक बात मैं सीमा से अवश्य पूछना चाहूँगा कि उसने चोरी क्यों की, ................................?.

 

शायद वह चोरी नहीं करती और पकड़ी नहीं जाती, तो सीमे आज मेरे सामने बैठी नजर आती, मैं और रमेश, बस प्लान पर प्लान बनाते रहते कि क्या हम कभी इस लड़की को यहाँ से निकल पाएंगे ...............?

 

और अंत में..................................?

 

"मेहमान तो भगवन का रूप होते हैं पर ऐसे "मान न मान मैं तेरा मेहमान" को आप कौन सी संज्ञा या नाम या किस देवी देवता का रूप देंगे? यह मैं आप पर छोड़ता हूँ..................! 

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                                            और सुनयना कहाँ खो गयी  ?

 

 

 

"और सुनयना कहाँ खो गयी?"

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 “डैड एक बुरी खबर   है,” नरेन ने अपने डैड से कहा ।

 

"क्या?" डैड ने घबडाते हुए पूछा”

 

"अभी अभी राहुल का फोन आया था, उसकी मम्मी का आज शाम को देहांत हो गया”?

 

"कौन राहुल? वह तुम्हारा दोस्त”?

 

"हाँ, वही"।

 

"पर कब और कैसे”? "अभी तो हाल ही हम सब उनके यहाँ डिनर पर गए थे, राहुल की मम्मी तो बिलकुल ठीक ठाक थी, फिर यह अचानक? राहुल के डैड से भी भेंट हुई थी, बड़े अच्छे और हंसमुख व्यक्ति हैं, डैड ने पूछा”?

"शाम आंटी को बैचैनी महसूस हुई, राहुल घर पर ही था, तुरंत अस्पताल ले गया, डाक्टर ने कहा कि बड़ा गहरा दिल का दौरा पड़ा है, डाक्टरों की पूरी टीम लग गयी, अपनी ओर से उन्हों ने पूरी कोशिश की, पर वे आंटी को नहीं बचा पाए, आंटी की पार्थिव शरीर यहीं अँधेरी के अस्पताल में पड़ी हुई है"?  नरेन ने कहा ।

 

"तो फिर तुम अभी असपताल जा रहे हो”?

 

"हाँ अभी मैं वहीँ के लिए निकल रहा हूँ, फिर जैसा होगा आपको सूचित कर देंगे," नरेन ने कहा ।

 

“ठीक है, मैं तुम्हारे फोन की   प्रतीक्षा   करूंगा, फोन करना भूलना मत, कुछ खा पी लो, पता नहीं कितना टाइम लगे ।

 

“डैड आप चिंता मत करिए, मैं देख लूँगा, मुझे जल्दी पहुँचना चाहिए, वैसे भी राहुल अभी वहां अकेला है, सब को खबर कर रहा है, मैं पहले पहुँच जाऊँगा तो उसको सहारा मिलेगा, और हाँ, मम्मी को मौका देखकर बता दीजियेगा, वैसे वह यह सब सुन कर घबडाने लगाती है” ।

 

इतना कह कर नरेन अपनी जींस कि पैंट और एक सफ़ेद शर्ट, चप्पल पहन कर अस्पताल के लिए चल पड़ा I

 

असपताल पहुंचते ही नरेन ने राहुल से पूछा, "अरे यह अचानक क्या हो गया"?

 

"आज मम्मी दोपहर में ही यहाँ आ गयी थी, बोली कि तुमसे मिलने का बहुत मन कर रहा था, शाम  में बिलकुल ठीक ठाक थी, हम लोग साथ साथ चाय पिए, ठीक उसके कुछ ही देर बाद  मम्मी को बैचैनी का अनुभव हुआ, सीने में दर्द की शिकायत  की, मैं, बिना कोई समय गवाएँ तुरंत यहाँ लिवा ले आया; डाक्टर ने कहा कि दिल का गहरा दौरा पड़ा है, उन्हों  ने अपनी ओर से हर संभव कोशिश की दिल को चालू करने की, पर  मम्मी चल बसी,  नरेन्, उन्हों ने मेरे सामने दम तोड़ दिया और  मैं कुछ भी नहीं कर पाया” ।

 

“मुझे लगा नरेन, मम्मी जैसे मुझसे कहना चाह रही हो कि मुझे बचा लो, मैं अभी मरना नहीं चाहती हूँ, पर.....................! ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था?

 

“काश .....................! मैं उसे बचा पाता, मैंने अपने आप को इतना बेबस और लाचार कभी नहीं पाया नरेन्, मैं अपनी मम्मी को नहीं बचा पाया”, इतना कह कर राहुल वहीँ फुट फुट कर रोने लगा ।

 

राहुल को सांत्वना देते हुए नरेन् ने कहा, " रो मत, मत रो, तेरे रोने से आंटी की आत्मा दुखी होगी, फिर तुझे ही तो अंकल को भी संभालना है, सोच, अंकल को कितना बड़ा सदमा लगा होगा, वे तो बस समझ कि अन्दर से टूट चुके होंगे, चुप हो जा और अपने आप को संभाल”, नरेन ने कहा ।

 

नरेन ने फिर पूछा, “डैड को बतलाया    है कि नहीं, बाकी सभी भाई बहन और करीबी रिस्तेदारों को सूचना दे दी”?

 

"हाँ मैंने घर से निकलते ही समय डैड को फोन पर ही बता दिया था कि मम्मी की तबियत अचानक बिगड़ गयी है, वे तुरंत इस अस्पताल में आ जाएँ, अभी जब तुम्हें मम्मी के देहांत की सूचऩा दे रहा था, उसी समय डैड को भी फ़ोन करके यह अशुभ खबर दे दी, डैड अब बस पहुंचते ही होंगे” ।

 

“और भाई को? वह तो साउथ मुंबई में है ना, उसे पहुँचने   में भी तो समय लगेगा, मुंबई की ट्राफिक का तो हाल मालूम ही है, उस पर आज वीक एंड है, और तुम्हारी सिस्टर, वो तो वाशी में रहती है, उसे तो आने में समय लगेगा” ।

 

"हाँ खबर तो कर दी है मैंने, बस मैं डैड के आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, अस्पताल वाले भी बोल रहे हैं मम्मी की पार्थिव शरीर को यहाँ से हटाने के लिए" ।

 

इसी बीच राहुल के डैड वहां पहुँच चुके थे, उन्हों ने भी राहुल से वही सारी बातें पूछी, राहुल ने डैड को सारी जानकारी देते हुए पूछा, “डैड अब क्या करना है? असपताल वाले मम्मी की पार्थिव शरीर यहाँ से हटाने के लिए बार बार बोल रहे हैं”,

 

राहुल के डैड बड़े नर्वस दिखे, अन्दर से टूट चुके थे, इस उम्र में पत्नी का अचानक इस तरह साथ छोड़ जाने का सदमा उनसे बर्दास्त नहीं हो रहा था, किसी तरह अपने आप को अब तक संभाले हुए थे, बोले. "अब करने को बचा ही क्या है, तुम्हे जो सही लगे वह करो” ।

 

राहुल अपने डैड कि स्थिति अच्छी तरह समझ रहा था, राहुल सबसे बड़ा बेटा था, उसे ही सब कुछ करना पड़ेगा, यह वह अच्छी तरह समझ रहा था पर वह इस असमंजस में था कि शरीर   को कहाँ शिफ्ट किया जाये?  पास अपने फ्लैट में? पर फ्लैट   मेँ इतनी जगह कहाँ थी? उसपर उसकी पत्नी कि तबियत भी गड़बड़ चल रही थी, और फिर मम्मी की शरीर   को सुरक्षित रखने के लिए बर्फ के सिल्ले का इंतजाम वगैरह – वगैरह, ढेर तरह के सवाल उसके मन मे आ जा रहे थे ।

 

राहुल ने इन सारी परिस्थितिओं पर नरेन से विमर्श करना बेहतर समझा, वैसे भी इन नाजुक समय में निर्यण लेना बड़ा मुश्किल होता है ।

 

राहुल ने पूछा “क्या करना ठीक रहेगा नरेन्”?

 

नरेन ने गंभीर होते हए कहा, "मुंबई के लोग बड़े व्यवाहारिक होते हैं, यहीं पास सांताक्रूज़ में नानावटी अस्पताल के शव ग्रीह मेँ पार्थिव शरीर को रखने का बड़ा अच्छा प्रबंध है, वहां मम्मी के शारीर को रात भर के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है, अगले दिन सुबह हम आंटी को घर ले आयेंगे, और वैसे भी संजय और ईशा   को पहुँचने में कई घंटे लगेगे और समरेश तो कल ही बैंगलोर से आ पायेगा, फिर भी डैडी से पूछ लो" I

 

राहुल के पिता बनवारी लाल जी को कुल तीन बेटे और एक बेटी थी, दोनों बेटे राहुल और संजय की शादी हो चुकी थी, वे दोनों मुंबई में ही बस गए थे और अपने अपने फ्लैट में रहते थे, जब कि सबसे छोटा तीसरा बेटा समरेश बैंगलोर में नौकरी करता था,  बेटी ईशा  की भी शादी हो चुकी थी, वह वासी में रहती थी, राहुल और संजय को एक एक बेटे थे जबकि ईशा   को एक बेटा और एक बेटी थी, समरेश की शादी अभी नहीं हुयी थी,  राहुल के पिताजी अपने पुस्तैनी मकान में अपनी पत्नी सुनयना  के साथ रहते थे ।

इन्ही “सुनयना”, बनवारी लाल जी की पत्नी अर्थात राहुल की माताजी का दिल का दौरा पड़ने से आज अचानक देहांत हो हो गया, जिनके पार्थिव शरीर को शिफ्ट करने की बात हो रही है ।

 

राहुल बहुत ही असमंजस की स्थिति में था, एक मन कहता कि मम्मी को फ्लैट में ही ले जाना ठीक होगा, पर दूसरे ही छंण उसे सभी व्याहारिक कठिनाईयां दृस्तिगत हो रही थी, हाँलाकि राहुल ने सारी बातें डैडी से कर लेना ही बेहतर समझा ।

 

राहुल जैसे ही बोला कि “डैड, नरेन् कहा रहा था, तब तक डैड बोल उठे," मैंने नरेन् की सारी बातें सुन ली है, नरेन् ठीक कह रहा है” ।

 

 “अब जब कि जाने वाला यह दुनियां ही छोड़ कर चला गया, तो नाहक पार्थिव शरीर को लेकर इतनी जहमत क्यों? अरे यह तो अब मिट्टी हो चुकी है, इस मिट्टी से कैसा मोह और माया, बस इसे दाह कर्म तक सुरक्षित रखना जरूरी है नहीं तो शरीर ख़राब होने लगेगा, वैसे भी समरेश के पहुँचने की प्रतीक्षा करनी ही है, उसके लिए भी तो अपनी मम्मी का अंतिम दर्शन करना जरूरी है”, बनवारी लाल जी बड़े दार्शनिक स्वभाव में धीरे धीरे बोले, पर राहुल को साफ़ साफ़ नजर आ र हा था कि डैड रूआंसे हो रहे हैं ।

 

बनवारी लाल जी ने फिर उदासी भरे लहजे में कहा कि “अस्पताल का हिसाब चुकता कर दो, और हाँ डिस्चार्ग और डेथ सर्टिफिकेट लेना मत भुलना,” इतना कह कर बनवारी लाल जी वहीँ कोने में रखे सोफे पर निढ़ाल से पड़ गए और आँखें बंद कर ली, शायद अपनी पुराने दिनों कि याद में खो गए हों।

 

राहुल, नरेन् को साथ लेकर अस्पताल के बिल काउंटर पर पहुंचा और बड़े नम्र अंदाज में उनसे सारी औपचारिकताएं शीघ्र निबटाने के लिए अनुरोध किया, फिर नरेन् से बोला कि "तू यहाँ पर ठहर, मैं जरा एक सिगरेट पी कर आता हूँ, शायद मन थोडा हल्का हो जाये ।

 

“इधर सुनयना की आत्मा जो अपने पार्थिव शरीर के आस - पास मंडरा रही थी, वो भी बड़े असमंजस में थी, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है, वह बार बार अपने शरीर को देखकर सोचती कि मैं यहाँ पड़ी क्यों हूँ? मैं उठ क्यों नहीं पा रही हूँ, ये (सुनयना के पति) इस तरह मुझे अकेला छोड़कर सोफे पर उदास लेटे हैं, लगता है कि इनमेँ कोई जान बाकी ही ना हो, ऐसे तो ये कभी नहीं करते थे, सब दिन इन्हों ने पहले मेरा ही ख्याल रखा है? आज क्या हो गया है इनको, इनकी मति तो नहीं मारी गयी? और ये राहुल..............! ये क्यों रो रहा था? इसे क्या हुआ है? सब इतने परेशान क्यों हैं? मुझसे बातें क्यों नहीं करते”?

 

सुनयना कि आत्मा बहुत अशांत दिखी, वह बार बार अपने शरीर में प्रवेश करना चाह रही थी, पर उसे हैरानी इस बात कि थी कि वह इसमें सफल क्यों नहीं हो पा रही है? उसने अपने पति से बातें करने की कोशिश की, पर बनवारी लाल जी तक उसकी कोई बात पहुँच नहीं रही थी, उसे बार बार लग रहा था कि ये मेरी किसी किसी बात पर ध्यान क्यों नहीं दे रहें हैं । तभी राहुल वहां पहुंचा, सुनयना की आत्मा ने चिल्लाकर आवाज दी "राहुल इधर आओ, मैं यहाँ लेटी पडी हूँ और तुम लोगों को इसकी कोई चिंता - फिकर तक नहीं है, तुम तो मेरी एक बात पर दौड़े चले आते थे, आज क्या हो गया है तुम्हें जो इस तरह मुझे अकेला छोड़ दिए हो"?

 

पर सुनयना हैरान थी कि उसकी बातें कोई नहीं सुन रहा है, वह बहुत ही परेशान थी, तभी उसकी दृष्टि आस पास कई ज्योतिर्मय बिम्बों पर पडी जो उसी के पास आ रही थी । ज्योतिर्मय बिम्बों की झुण्ड में से एक ने पूछ "क्या बात है बहन, इतनी परेशान क्यों हो”? सुनयना को थोड़ी राहत मिली कि कोई तो उसकी खोज खबर लेने आया, “उसने सभी बातें विस्तार से उस बिम्ब को दी” ।

 

उस बिम्ब ने कहा "बहन तुम्हरी मृत्यु हो चुकी है, इस नश्वर संसार को छोड़ कर तुम अब  दूसरे लोक  की निवासी हो, प्रारंभ में  सब को एक ही प्रकार के अनुभव से गुजरना पड़ता  है, फिर धीरे   धीरे सभी परिस्थितित्यों के अनुकूल हो जाती हैं, तुम परेशान और दुखी मत हो,  दाह कर्म तक ये मोह माया का जंजाल तुम्हें यूंही सताएगा, जैसे ही तुम्हारा पार्थिव शरीर  अग्नि  में विलीन हो जायेगा, तुम इन बन्धनों से मुक्त हो जाओगी, जन्म लेना और मरना हमारे हाथ में नहीं. मृत्यु एक अटल सत्य है किन्तु इन्सान उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, उसके जीने की लालसा खतम नहीं होती ।

 

जिस तरह जन्म लेकर जीना जरुरी है, उसी तरह जीने लेने के बाद मरना भी जरुरी है, हम सभी जीवों को जो धरती पर जन्म लेते हैं  उन्हें  एक ना एक दिन इस कटु सच का सामना करना पड़ता है, यह निर्विवाद सत्य है, निराश मत हो बहन, यही इस संसार का नियम है, पर हम सभी यह जानते हुए भी इस एक मात्र निर्विवाद सत्य स्वीकार करने को तैयार नहीं रहते हैं , यही हमारे दुःख का असली कारण है, जब मौत हो ही चुकी है तो इसे ख़ुशी ख़ुशी क्यों न गले लगा लिया जाये” ? इतना कह कर सभी बिम्बं पुनः से विचरने को निकल पड़ी।

 

सुनयना की आत्मा इन बीत रही सारी घटनाओं से परेशान तो थी ही पर अचंभित भी कम नहीं थी, उसे समझ में कुछ भी   नहीं आ रहा था कि यह सब आखिर क्या हो रहा है और क्यों? कोई उसकी बात तक नहीं सुन रहा था और ये कैसी ज्योतिर्मय  रोशनी  थी, चमकती, प्रज्वलित  अग्नि बिंदु  की  तरह, और वो  बिम्ब  क्या कह रही थी कि मैं  मर चुकी  हूँ ? क्या वास्तव में मेरी मृत्यु हो चुकी है?

 

सुनयना स्थिति को  समझने की कोशिश कर रही थी, उसे कुछ छण पहले  सारी  घटित  घटना  ब्योरेवार  धीरे   धीरे याद  आ रही थी ।  उसने   देखा   कि  उसके शरीर  को  उठाया  जा  रहा है, वह  समझी  कि मैं अभी  जिंदा हूँ, उसने  अपने  शरीर  में पुनः समाने  की  चेष्टा  की, पर उसे सफलता  नहीं मिली, उसे पास  वाले स्ट्रेचर  पर लिटाया  जा रहा है । राहुल  के  हांथों  में एक पेपर  है जिसे  वह  अपने डैड   को दिखला  रहा है, सुनयना ने  भी उस  पेपर  पर नज़र  डाली,  वह कागज़  का टुकड़ा  सुनयना का  मृत्यु  प्रमाण  पत्र था । अंग्रेज़ी  में टाइप  किये  उस  पत्र  में सुनयना के  मृत्यु  की पुस्टि  की गयी  थी । सुनयना  अंग्रेज़ी  में लिखे उस पत्र  को पढ़ कर हिन्दी  में समझने  की  कोशिश  कर रही थी,  उस  पत्र का  आशय  था .....!

 

“श्री मति  सुनयना बनवारी लाल की मृत्यु आज दिनांक ४ जुलाई २०१० को साढ़े सात बजे दिल का दौरा पड़ने से हो गयी I यह एक प्राकृतिक  मृत्यु है, श्री मति  सुनयना बनवारी लाल   के पार्थिव शरीर  को  इस  असपताल  से ले जाने  की अनुमती  प्रदान  की जाती  है" ।

 

सुनयना को  अब  धीरे  धीरे  इस  बात का अनुभव हो रहा था  कि वह  वास्तव  में मर  चुकी थी, और यह उसका पार्थिव  शरीर था, जिसे  ये असपताल  वाले  स्ट्रेचर  में डालकर  अब एम्बुलेंस में रखने  के  लिए  निकल चुके  थे  । सुनयना  को अब  सारी बातें  समझ में आ गयी  थी कि  क्यों नहीं  उसकी आवाज कोई सुन पा  रहा था। यह जो  मैं अभी  हूँ  यह मेरी आत्मा है, मैं  भी इन्हीं  बिम्बों  कि तरह  दीख  रही  हूँगी, जिसे संसार का कोई जीव नहीं देख  पाता  है, पता  नहीं अभी मैं किस  लोक  में हूँ , शायद ये   बिम्बें  इस  पर प्रकाश  डाल संकेंगी  । इधर  सुनयना के  शरीर  को  एम्बुलेंस में डाल कर  राहुल, नरेन्  और राहुल  के  डैड नानावटी अस्पताल   के  लिये चल पड़े  जहां  आज  रात  भर  सुनयना के  पार्थिव  शरीर को रखा  जाना  था ।

 

थोड़ी  ही देर  में एम्बुलेंस नानावटी  असपताल  पहुँच  गयी, सब ने बड़ी सावधानी  के साथ सुनयना के पार्थिव शरीर  को वान  से नीचे  उतार कर स्ट्रेचर  में डाल  कर असपताल  के वरामदे  में रख  दिया,  बनवारी  लाल  जी  अपनी पत्नी  के  पास ही खड़े रहे, और इधर  राहुल  नरेन् को साथ लेकर  स्वागत कक्ष  के काउंटर  पर पहुंचा, वहां उसने सारी औपचारिकताएं  पूरी  की, फिर  अस्पताल  के  दूसरे  स्टाफ  आये  और स्ट्रेचर  उठा  कर शव ग्रीह की ओर  चल  दिए, शव ग्रीह पूर्ण  वतानुकिलित  था ।

 

चारों  ओर  रैक   बने  हुए  थे  और उन  रैकों  में कई  एक खाने थे, जिनमें शव को रखने की व्यवस्था थी ,बीच  के  एक खाने में सुनयना की  पार्थिव  शरीर  को स्ट्रेचर  से उठा  कर उसमें डाल दिया  गया  और सफ़ेद  चादर  से   ढँक  दी  गयी, खाने को  धकेल  कर बंद  कर  दिया  गया, उस खाने  पर एक नंबर  लिखा था "१०८ "।

 

"१०८" नबँर  का कार्ड  निकाल  कर  वहां  के  स्टाफ  ने उस पर सुनयना का नाम  पता  इत्यादि   अंकित किया और राहुल  को देते  हुए  कहा,  जब इस  शरीर को लेने आयेंगे  तो यह नंबर  बता  दीजियेगा, जब   तक इनका पार्थिव  शरीर इस  शव  ग्रीह  में  रखा हुआ है, ये "१०८" नंबर से ही जानी जायेगी, यही  इनकी  पहचान है यहाँ । राहुल को सदमा सा लगा कि मेरी मम्मी "१०८" नंबर से जानी जायेगी, पर उसे इस पर संतोष था कि "१०८" कम से कम एक शुभ  अंक  तो है । राहुल ने पूछा "हमें और भी कुछ करने कि आवश्यकता   है" ?

 

"नहीं, अब  आप  आराम  से घर  जाइए, आप  और ये बुजुर्ग  सज्जन भी  थक  गए   होंगे , जाईये  घर  जाकर आराम कर लीजिये, वैसे  आप  इस शरीर  को  लेने  कब आईएगा" ?

 

"कल सुबह, लगभग नव - दस बजे, चलेगा ना"?

 

"अरे  साहब  आप  जब  तक  चाहिए  शरीर  को  यहाँ रख सकतें  हैं , यहाँ  सभी  पार्थिव शरीर की देख  भाल के  लिए बड़े पुख्ता  और ठोस प्रबंध किये  गएँ हैं,सुरक्षा  बहुत  मजबूत  है, बिना इस  कार्ड  को दिखलाये  बगैर  कोई परिंदा  भी पर  नहीं मार   सकता  है, आप  इत्मीनान  से  जाईये...................!

और हाँ साहब, हमारे चाय - पानी के लिए ईनाम बख़शिश?  माता जी की आत्मा को शांति मिलेगी"।

राहुल  ने  पैंट की  जेब  से एक  सौ  का  पत्ता   निकाल कर उसके  हाथों में डाल  दिया और बड़ी   नम्रता  से बोला  "भाई मेरी  माता  जी  ख्याल  रखना" ।

 

राहुल अपने डैड और नरेन् के साथ उस शव ग्रीह से बाहर निकल गया, धीरे धीरे एक एक कर सारे कर्मचारी भी वहां से निकल पड़े, शव ग्रीह के चौकीदार ने बाहर से ताला जड़ दिया । राहुल ने एक “एस एम् एस” अपने मोबाइल पर टाइप किया और सभी निकट सम्बन्धियों को इसकी सूचना दे दी ।

 

डैड से राहुल ने कहा "डैड चलिए, मेरे ही फ्लैट में चल कर रहिये, कल पुनः यहाँ आकर मम्मी की पार्थिव शरीर को भी लाना है और ढेर सारा प्रबंध भी करना होगा,पंडित जी को भी खबर कर देते हैं, सुबह उन्हें शीघ्र आने के लिए बोल देते हैं, बनवारी लाल ने सहमति में अपऩी सर को हिला दिया, फिर सभी वहां से राहुल की फ्लैट की ओर निकल पड़े ।

 

शव ग्रीह कक्ष में अँधेरा था, उस अँधेरे में सुनयना को ढेर सारे ज्योतिर्मय बिम्बें दिंखीं, सुनयना अचंभित थी कि ये यहाँ बिम्बें क्या कर रही हैं, तभी उनमें से एक बिम्ब सुनयना के पास आकर बोला, "बहन तुम्हें मरे कितना वक्त हो गया"?

 

 "सुनयना ने धीरे से कहा "आज शाम साढ़े सात बजे मेरा देहांत हो गया", अभी अभी मेरा बेटा और मेरे पति मुझे यहाँ छोड़ कर गए है, कल वह आ कर मुझे ले जाएंगे" ।

 

"तुम भाग्यवान हो बहन, कल ही तुम्हें यहाँ से छुटकारा मिल जायेगा, मुझे तो यहाँ आये तीन चार दिन हो गया है, रोज कभी मेरा बेटा या कभी मेरी बेटी आकर देख लेती है, जब यहाँ का चौकीदार मेरा नंबर "४२०" पुकारता है तो मुझे बहुत बुरा लगता है, पर मैं क्या कर सकता हूँ, यही यहाँ का नियम है, देखो मुझे नंबर भी कैसा मिला है "श्री ४२०"?

 

उस बिम्ब ने बड़े निराश स्वर में पूछा, "बहन तुम्हारा नाम क्या था"?

 

"सुनयना”, पर मुझे यहाँ "१०८" से जानते हैं", सुनयना ने उदास होते हुए कहा ।

 

"कम से कम तुम्हें लक्की नंबर तो मिला” ।

 

"क्या हम यहाँ से बाहर नहीं निकल सकते हैं"? सुनयना ने सोचा यह सज्जन तीन चार दिनों से यहाँ पड़े है इन्हें तो इस जगह का अच्छा खासा अनुभव हो गया होगा ।

 

"नहीं, जब तक हमारा यह पार्थिव शरीर यहाँ पड़ा है, तब तक हम नहीं निकल सकते, एक तो इस शरीर कि देखभाल और दूसरा इसकी मोह माया" ।

 

"पर यहाँ तो दम घुटता है" ।

 

"बस कल तक तुम प्रतीक्षा कर लो, तुम्हारे घर वाले कल तुम्हें यहाँ से ले जायेंगे, संभवतः कल ही तुम्हारा दाह संस्कार हो जायेगा,

 

फिर तुम स्वतंत्र रूप से जहाँ चाहोगी, जा सकोगी, तब तक तो इस घुटन और नर्क को भुगतना ही पड़ेगा, यह तो अभी कम से कम अच्छा है कि कोई बुरे व्यक्ति की आत्मा नहीं है यहाँ पर, नहीं तो पता नहीं यहाँ पर भी क्या क्या गुल खिलाता" ।

 

"अच्छा बहन, अब चिंता मत करो, बस अपने ईस्ट देव को याद करते रहो, वही इस वैतरणी, भव सागर को पार लगायेंगे", इतना कह कर वह बिम्ब उदास हो गया और वहीँ पर पुनः से विचरने लगा ।

 

सुनयना फिर से अकेली थी, उसने सोच कि अच्छा होता राहुल अपने साथ अपने फ्लैट में ही मुझे ले जाता, पर दूसरे ही छण उसे ध्यान आया कि मेरे कारण उसे कितनी कठिनाइयां होती, अरे मैं तो मर ही चुकी हूँ, जब जीते जी मैंने किसी को कोई कष्ट या तकलीफ नहीं दिया तो अब मरने के बाद मैं अपने ही बेटे को कष्ट में डालूँगी? नहीं नहीं, राहुल ने बिलकुल सही निर्णय लिया, मेरा आशीर्वाद हमेशा उसके साथ है । 

सुनयना को इस तरह सोचने पर राहत का अनुभव हुआ, वह अब शांत थी राहुल, नरेन् और राहुल के आने की प्रतीक्षा कर रही थी ।

 

डैड बड़े भरी मन से राहुल के फ्लैट में पहुंचे । बनवारी लाल जी बिलकुल ही टूट चुके थे, उन्हें देख कर   ही ऐसा लग रहा था मानों उनमें जान बांकी ना हो?

 

बनवारी लाल जी फ्लैट के लिविंग रूम में रख्खे सोफे पर निढाल से लेट गए। उसी समय स्वाती, राहुल की पत्नी वहां पहुंची और बनवारी लाल जी से लिपट कर रोने लगी ।

 

बनवारी लाल जी सांत्वना देते हुए बोले, "मत रो बेटी, रोने से तुम्हारी मम्मी की आत्मा दुखी होगी, अपने आप को संभालो, नहीं तो चिंटू भी रोने लगेगा" ।

 

"डैड, आप कुछ खा लीजिये, मैं आपके लिए गरम गरम रोटी सेंक कर तुरंत ले आती हूँ" ।

 

"नहीं बेटी, खाने की बिलकुल ही इच्छा नहीं है, बस एक कप चाय पिला दो, और साथ में एक, दो ब्रेड, डाईबिटीज के कारण ब्रेड तो लेना ही पड़ेगा, और राहुल को बोल दो कि पास के मेडिसिन की दुकान से एक पत्ता ग्लुमिलिन की मँगा ले, जल्दी जल्दी में सुगर की दवा नहीं ले सका ।

 

"जी डैड, आप आराम करिए, मैं अभी चाय बनाकर लती हूँ, स्वाति सुबकते सुबकते बोली, और फिर राहुल को ग्लुमिलिन लाने के लिए बोलते हुए पूछा "राहुल तुम क्या खाओगे"?

 

"स्वाति, मुझे भी कुछ खाने कि इछ्छा नहीं है, ऐसा करो कि मुझे भी एक कप चाय दे दो, बस" ।

 

"नरेन्, तू अगर रूक सकता है तो आज रात यहीं रूक जा, तुम्हारे लिए स्वाति कुछ बना लेगी",राहुल ने नरेन् से कहा ।

 

"अरे नहीं राहुल, मैंने तो पहले से ही आज यहीं रूकने का मन बना लिया था, मैंने अपने डैड को फ़ोन कर बता भी दिया है, और हाँ, मैं भी बस चाय और ब्रेड ले लूँगा" I

 

इसी बीच चिंटू जग गया था, वह अपने कमरे से उठ कर लिविंग रूम पहुंचा और अपने दादा जी के पास सीधे जा कर लिपट गया, और बोला, "दादा जी, मेरे कमरे में चलिए, वहीँ हम लोग खेलेंगे, और दादी नहीं आयी क्या, वह कहाँ है"?

 

"चिंटू, दादा जी को तंग मत करो, अपने कमरे में जाओ, कल खेल लेना, आज दादा जी कि तबीअत ठीक नहीं है", इतना कह कर राहुल ने स्वाति को आवाज देते हुए बोला "स्वाति चिंटू को ले जाओ और उसे सुला दो" ।

 

तभी राहुल के मोबाइल कि घंटी बज उठी, संजय का फ़ोन था, "राहुल मैं आधे घंटे में पहुँचने ही वाला हूँ, तुम लोग कहाँ हो, घर आ गए क्या और डैड ठीक है ना"?

 

"सब ठीक है, डैड भी ठीक हैं, तुम बस पहुँचो" ।

 

राहुल ने फ़ोन बंद किया ही था कि फिर फ़ोन कि घंटी घनघना उठी, इस बार ईशा का फ़ोन था, "भैया, हम लोग बस घर से निकल चुके हैं, लगभग एक घंटे में पहुँच रहे हैं, डैड का ख्याल रखना"। तभी साथ   साथ स्वाति के मोबाइल पर समरेश का फ़ोन आया, बोला "भाभी मुझे रात की फ्लाईट का रिजर्वेसन मिल गया है, आप लोग सब ठीक हैं ना ? और डैड? उनका ख्याल रखियेगा, भैया को बता दीजियेगा", बाई । 

 

राहुल ने नरेन् को साथ लिया और अपने कमरे में जाकर एक सिगरेट अपने और एक नरेन् के लिए सुलगाई और एक लम्बी गहरी कश लिया ही था कि स्वाति की आवाज सुनाई दी, "राहुल, नरेन को साथ लेकर लिविंग रूम में आ जाओ, चाय वहीँ पर रख दी है, तब तक मैं ब्रेड सेंक कर ले आती हूँ, और हाँ, डैड को एक ग्लास पानी दे दो, दवा खा लेंगे" स्वाति ने किचेन से ही राहुल को आवाज दी ।

 

तभी बेल की भी घंटी टनटनाई, "संजय होगा, राहुल ने दरवाजा खोला, पर पड़ोस के मिश्रा जी थे" ।

 

"अभी अभी मैं दादर से आ रहा हूँ, आते ही बिमला ने यह बुरी खबर सुनायी, मुझे सहसा विश्वास   ही नहीं हो पा रहा है, भागा भागा आ रहा हूँ, यह अचानक कैसे हो गया, आंटी तो भली चंगी थी, फिर" ?

 

"हाँ, अचानक दिल का दौरा पड़ा और मम्मी चल बसी" ।

 

"वही मैं सोंच में पड़ा था कि आखिर आंटी को हुआ क्या होगा, अब ईश्वर को यही मंजूर था, उसके आगे किसी का बस थोड़े ही चलता है" मिश्रा जी सांत्वना के तौर पर बोले। पुनः पूछा, आंटी के डेड बॉडी (पार्थिव शरीर) को ले आये क्या"?

 

"नानावटी हास्पिटल में शव को रखने का बड़ा अच्छा प्रबंध है, आज रात के लिए वहीँ रख आये हैं, दाह संस्कार कल करेंगे", राहुल ने मिश्रा जी को सारी जानकारी दी ।

 

"किसी चीज की जरूरत हो तो निःसंकोच कहना, मैं अभी खाना भेजने का प्रबंध करता हूँ" ।"नहीं मिश्रा जी, अभी खाना भेजने की अभी आवश्यकता नहीं है, हम लोगों ने थोडा बहुत खा लिया है, वैसे भी जरूरत पड़ेगी तो मैं आप ही को खबर करूंगा' ।

 

"हाँ हाँ, बिलकुल ही निःसंकोच मत करना", तुम्हरे पिताजी ठीक हैं न? उनका ख्याल रखना", इतना कह कर मिश्रा जी ने कहा कि ठीक है अभी मैं चलता हूँ, कल कितने बजे दाह संस्कार करने का प्रोग्राम है"?

 

"एक दो तो बज ही जायेगा" ।

 

"ठीक है मैं रहूँगा, तुम किसी बात के लिए चिंता मत करना, सब इंतज़ाम हो जायेगा", इतना कह कर मिश्रा जी वहां से निकल पड़े ।

 

मिश्रा जी, राहुल के पड़ोसी थे, अच्छा आना जाना था, उन्हों ने एक अच्छे पड़ोसी होने का धर्म अच्छी तरह से निभाया, नहीं तो भला इस मुंबई शहर में कौन किसी कि खबर लेता है, राहुल ने सोचा । धीरे धीरे इसी तरह दो तीन और पड़ोसी जो राहुल के अच्छे दोस्तों में थे, सब ने आकर खोज खबर ली ।

 

लिविंग रूम में सभी  गुमसुम अपनी अपनी सोच में  पड़े  बैठे   हुए  थे, दरवाजे की बेल बज उठी, स्वाति ने  दरवाजा   खोला,  देखा ईशा अपने दोनों  बच्चों और पति जेठामल  जी के साथ आ चुकी थी, आते ही ईशा ने अपनी भाभी के गले लग  फूट  फूट कर रोने लगी, स्वाति ने ईशा को चुप कराते हुए अन्दर लिवा लाई, ईशा डैड को देखते ही और भी हिचकियाँ ले ले कर रोने लगी ; रोते रोते बोली, "डैड, मम्मी हम लोगों को छोड़ कर क्यों चली गयी,? हम लोगों से क्या नारज़गी थी, अभी तो उसके पोते पोतिओं और नवासों से खेलने का समय आया था, यह क्या हो गया डैड"?

 

बनवारी लाल जी ने अपने आप को संभालते हुए कहा, "ईश्वर को यही मंजूर था ईशा, उसके आगे किसी की नहीं चलती, अपने आप को सम्भालो, तुम्हें रोता देख कर ये बच्चे भी रोने लगेंगे" वहां सभी की आँखें डबडबा गई थी, सब एक दूसरे को समझाने में लगे थे पर स्वँम अपने आप को रोकने में असमर्थ थे ।

 

थोड़ी देर के लिए एक सन्नाटा सा छ गया था, स्वाति उठते हुए बोली कि मैं सभी के लिए चाय बना कर लाती हूँ, सब ने सहमति में हाँ की, शायद सब को चाय क इस समय बेहद जरूरत थी। तभी बेल की घंटी बजी, ईशा ने दरवाजा खोला, संजय अपनी पत्नी उषा और पिंटू के साथ पहुँच चूका था, एक बार फिर संजय को देखते ही सब एक साथ रो पड़े, सब एक दूसरे को दिलासा  देते रहे I

 

स्वाति चाय ले आयी थी, चाय के साथ साथ माहौल धीरे धीरे नार्मल होने लगा था, सभी सुनयना देवी की ही बातें कर हे थे, हर कोई अपने अपने तरीके से उनकी पुरानी यादों को याद कर रहा था,

 

बनवारी लाल जी चुप - चाप सोफे पर लेटे हुए सुनयना की याद में खो से गए थे ।

 

रात का सन्नाटा धीरे धीरे गहरा रहा था, सभी  के चहरे पर थकान साफ़ साफ़ नज़र आ रही थी, सभी लोग थक चुके थे, एक तो ग़मगीन माहौल, उस पर किसी ने ढंग से खाया पिया नहीं था, फिर ये शरीर भी तो आराम खोज रहा था, पर किसी को भी वहां से खिसकने का मन नहीं कर रहा था, बनवारी लाल जी ने कहा, "राहुल, तुम, नरेन्, संजय और जेठामल चिंटू के कमरे में थोडा बदन सीधा कर लो, ईशा, और उषा, स्वाति के कमरे में लेट जायेगी"।

 

रात के चार बजने ही वाले थे, दरवाजे के बेल की घंटी एक बार फिर से टनटना उठी, कोई बड़ी बेसब्री से बार बार बेल बजा रहा था, बनवारी लाल जी ने उठ कर दरवाजा खोला, समरेश था, डैड को देखते ही जोर से लिपट कर रो पड़ा और रोते रोते उसने भी यही प्रशन अपने डैड से किया, "डैड, मम्मी हमें छोड़ कर क्यों चली गयी"?

 

बनवारी लाल जी इस प्रश्न का क्या उत्तर देते, वे भी चुप चाप सुबकने लगे, "बोले, मत रो समरेश रो मत, सुनयना की आत्मा वैसे ही दुखी होगी, इस तरह रोने से वो जहाँ कहीं भी होगी, उसे बड़ा सदमा होगा, हमें अपने आपको को संभालना ही होगा" ।

 

तब तक घर के बांकी सदस्य भी वहीँ लिविंग रूम में आ चुके थे, समरेश सुबकते सुबकते सब के गले लग कर रोता रहा, समरेश, सुनयना का सबसे छोटा और लाडला बेटा था, ईशा और स्वाति के गले से लिपट कर तो वह फूट ही पड़ा, उसके रोने के सब्र का बांध रोके नहीं रूक रहा था, सब ने सोचा कि रो लेने दो उसे, रोने से मन हल्का हो जायेगा ।

 फिर से एक सन्नाटा सा छ गया था वहां, कोई कुछ भी नहीं बोल रहा था, सबके मन में शायद एक ही प्रश्न था? मम्मी के बिना यही

 

घर कैसा सूना सूना लग रहा है, कैसे हम मम्मी के बिना रह पाएंगे?  सहसा ज़िन्दगी कितनी बेमानी सी लगने लगी थी?

 

सुबह होने ही वाली थी, एक नया सवेरा! पर मम्मी के बिना यह सवेरा और दिनों की अपेक्च्छा कितना अलग था, एक सुनयना के वहां नहीं होने से सब कुछ कितना बदला बदला सा था, मन ही मन सब सोच रहे थे कि आखिर यह कैसा जीवन है?  क्यों है इतना दुःख?  ईश्वर क्यों इतनी नाइंसाफी करता है? अभी मम्मी की उम्र ही क्या थी? अरसठ साल कोई उम्र होती है मरने के लिए? आज कल तो अस्सी वर्ष तक तो सभी आराम से जी ही लेते हैं, फिर डैड? वे कैसे काट पाएंगे बांकी कि ज़िन्दगी मम्मी के बिना? वे तो पूरी तौर पर मम्मी पर निर्भर थे । क्या होगा उनका? नेपथ्य में कहीं दूर से आ रही इस दर्द भरे गाने कि गूँज सभी को सुनायी   दी!

 

"दुनियां     में    हम   आये    हैं   तो   जीना ही    पड़ेगा,  

जीवन   है   अगर    ज़हर      तो   पीना     ही     पड़ेगा"।

 

सच में, आज सभी को यह जीवन ज़हर ही दीख रहा था, ऐसा लगा कि सुनयना के चले जाने से जीवन की कड़ी  ही  बिखर  गयी हो, अब कौन बाँध कर रख पायेगा हम सब को ? क्या होगा इस परिवार का, एक मम्मी सब को बाँध कर रख्खे थी, पर वही चली गयी हम सभी को छोड़ कर, कैसे हम जी पाएंगे उसके बिना? बार बार यह प्रश्न यक्ष की प्रश्न की तरह सभी को कुरेंदें जा रहा था, पर किसी के पास शायद इस कटु प्रश्न का उत्तर नहीं था?  

 

आठ बजने ही वाले थे, स्वाति और उषा ने मिल कर सब के लिए चाय तैयार की और ब्रेड के साथ सबको नाश्ता पानी करा दिया, वैसे भी आज किसी को स्नान इत्यादि तो करना था नहीं, बस मम्मी के पार्थिव शरीर के आने का इंतज़ार था, नव बजे का समय सभी ने मिल कर तय किया अस्पताल जाने के लिए, पंडित  जी को इसकी सूचना दे दी गयी कि वे दस बजे तक आ जायें, पंडित जी ने फ़ोन पर ही राहुल को पूजा और दाह संस्कार में आने वाले वस्तुओं की सूची लिखवा दी, राहुल ने यह उत्तरदायित्व  अपने बहिनोई जेठामल और समरेश के ऊपर छोड़ा ।

 

सोसाईटी के सचिव और चेअरमेन ने आकर अपनी सांत्वना प्रकट की और कहा, "सोसाईटी की ओर से किसी भी चीज की आवश्यकता हो तो हमें अवश्य सूचित कीजियेगा" ।

 

राहुल ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा कि हम अभी असपताल जा रहें हैं, लगभग ग्यारह बजे तक हम मम्मी के पार्थिव शरीर को ले आयेंगे, यहाँ से एक बजे दाह संस्कार के लिए अंतिम यात्रा वर्सोवा घाट के लिए प्रस्थान करेगी "शव यात्रा प्रारंभ के पूर्व सोसईटी के प्रांगण में थोड़े समय के लिए पार्थिव शरीर को रखना ठीक रहेगा ताकि जिन्हें भी इच्छा होगी वे अंतिम दर्शन कर पाएंगे" ।

 

सचिव और चेअरमेन ने सहर्ष अपनी सहमति प्रदान कर दी, और कहा "अरे यह तो आपका अधिकार बनता है, मैं अभी नोटीस बोर्ड पर इसकी सूचना सभी को दे देता हूँ" । राहुल ने एक बार फिर से अपनी ओर से कृतज्ञता प्रकट की और हाथ जोड़ लिए ।

 

असपताल के शव ग्रीह में सुनयना राहुल के आने की प्रतीक्षा कर रही थी, उसका मन अपने परिवार वालों से लिए मिलने के लिए बहुत बैचेन था और तड़प रहा था, तभी शव ग्रीह का दरवाजा चर मरा  कर खुला, प्रकाश की किरणों के साथ राहुल, संजय और नरेन् ने शव ग्रीह में प्रवेश किया, सुनयना के मन में हर्ष की एक लहर सी उठी, जिसे कोई नहीं देख पाया, उसने सोचा कि चलो इस अन्धकार से तो अब मुक्ति मिल जायेगी, सुनयना ने कल रात वाले बिम्ब का अभिवादन किया और बोली कि फिर आपसे मुलाकात अवश्य होगी ।

 

उस बिम्ब ने सुनयना से कहा, "हाँ बहन जाओ, आज दाह संस्कार के साथ तुम्हें इस मर्त्य लोक से मुक्ति मिल जायेगी, मैं भी अपने परिवार वालों के आने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, आज उनके आने की संभावना है, अच्छा बहन तब तक लिए विदा! पुनः हम जल्द ही उस अलौलिक संसार में मिलेंगे ।

 

राहुल ने असपताल की सारी औपचारिकताएं पूरी की, उसे सुनयना के पार्थिव शरीर को ले जाने की अनुमति मिल गयी थी । असपताल वाले ने एक स्ट्रेचर पर सुनयना के पार्थिव शरीर को रख्खा और ट्राली में डाल कर निकास द्वार की ओर चल पड़े, ट्राली के साथ

 

साथ राहुल, नरेन् और संजय भी थे । असपताल से बाहर निकल कर उन्हों ने पार्थिव शरीर को शव वाहिनी में रख्खा और फिर शव वाहिनी अपने गंतव्य स्थान राहुल के फ्लैट की ओर प्रस्थान कर गयी ।

 

राहुल ने असपताल से निकलते ही समय मोबाईल पर स्वाति को  स्थिति की जानकारी देते हुए कहा कि  हम लोग बस आधे घंटें में पहुँचने वाले हैं, तुम घर में सब को बता दो और सभी तैयारी कर लो, सेक्रेटरी को फ़ोन पर बोल दो कि थोड़ी देर के लिए वाचमेन को भेज दें, और उनकी मदद से लिविंग रूम से फर्नीचर हटवा कर बाहर जहाँ भी जगह मिले, रखवा दो, और हाँ लिविंग रूम को धो कर अगरबत्ती जला दो, वह पूजा घर में जो चौकी  है ना उसे निकाल लेना, उस पर एक सफ़ेद चद्दर डाल कर  मम्मी  की कोई अच्छी सी तस्वीर रख देना और हाँ पंडित जी को एक बार फ़ोन कर के उन्हें भी शीघ्र आने के लिए बोल देना" ।

 

"ठीक है, आप चिंता मत करिए, मैं सब संभाल लूंगी" जैसा आपने कहा है उसी के अनुसार आपके पहुँचने के पहले ही सारा प्रबंध मैं कर लूंगी हो", स्वाति ने कहा और फिर सारी तैयारी में लग गयी ।

 

थोड़ी ही देर में शव वाहन राहुल के एपार्टमेंट में पहुँच गया, एपार्टमेंट के बरामदे में काफी बड़ी संख्या में लोग खड़े प्रतीक्षा कर रहे थे, सोसाईटी के सचिव और चेअरमेन भी वहां उपस्थित थे ।

 

जैसे ही सुनयना की पार्थिव शरीर को वान से उतरा गया, एक गहरा सन्नाटा सा छा गया, सभी के चहरे पर उदासी साफ़ साफ़ साफ़ झलक रही थी, तभी सोसाईटी के सचिव और चेअरमेन ने आगे बढ़ कर पार्थिव शरीर को अपनी श्रधांजली दी और राहुल से पूछा "कहाँ रखना है"? 

 

"अभी तो फ्लैट में ले कर चलते हैं, पंडित जी के आने की प्रतीक्षा है, दाह कर्म की अंतिम रस्म और पूजा के पश्चात स्मशान घाट के लिए रवाना होंगे" ।

 

"कौन से स्मशान घाट "?

 

"वरसोवा" ।

 

इतना कह कर राहुल ने नरेन्, संजय और समरेश को आवाज दी, जेठमल जी भी वहीँ पर थे, सब ने मिल कर शव को काँधे दिया और फ्लैट की ओर चल पड़े, बनवारी लाल जी ऊपर फ्लैट में शव रखने का सारा प्रबंध देख रहे थे ।

 

जैसे ही सुनयना की पार्थिव शरीर को फ्लैट के अन्दर लिवा ले गए, सभी एक साथ फूट फूट कर रोने लगे, किसी को होश नहीं था, ईशा का तो और भी बुरा हाल था, सारे बच्चे अचंभित थे, उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, सुनयना की पार्थिव शरीर को लिविंग रूम के फर्श पर लिटाया जा चूका था, अगर बत्तियां जला दी गयी थी, सभी सुनयना को घेर कर चारों ओर खड़े थे और अपने अपने तरीके से आदर सहित प्रणाम, अभिवादन कर रहे थे ।

 

आज सभी सुनयना की एक झलक देख जैसे आत्मसात कर लेना चाहते हों, जीते जी तो इस संसार में सभी लोगों की पहनावे को देखते हैं, पर आज वे सुनयना की आत्मा की झलक पाना चाहते थे, काश! जब हम संसार में जीवन जीते हैं, अगर उस वक्त भी हम सब की आत्मा को देखें तो क्या इस संसार का स्वरुप बदल नहीं जायेगा?

 

पूरे एपार्टमेंट में खबर फैल चुकी थी, बारी बारी से एपार्टमेंट के सदस्य आ कर अपना अंतिम प्रणाम अर्पित कर रहे, कोई फूल माला चढ़ा रहा था तो कोई केवल फूल ही डाल रहा था, धीरे धीरे जिसे जहाँ जगह मिल रही थी, वहां बैठ गया, काफी लोग खड़े रहे ।

 

बनवारी लाल जी के रिश्तेदार, संबंधी आना शुरू हो गए थे, सुनयना की बहनें, भाई और बूढ़ी हो चुकी मौसी भी पहुँच चुकी थी, सभी उदास थे, सुनयना इस तरह अचानक उन्हें छोड़ कर चली जायेगी, यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था ।

 

बनवारी लाल जी एक कोने में सोफे पर बैठ कर एकटक अपनी पत्नी को निहार रहे थे, उन्हें अब तक विश्वास    नहीं हो पा रहा था कि सुनयना अचानक मुझे इस तरह भव संसार में अकेला छोड़कर चली जायेगी, सात फेरे लेने वक्त तो हमने सुख - दुःख में साथ रहने की कसमें खाई थी, फिर इसने अपना वादा क्यों नहीं निभाया, क्यों ये मुझे जीवन के इस मझधार में अकेला छोड़ गयी, इसे मेरे लिए थोड़ी भी चिंता नहीं थी, यह अन्याय मेरे ही साथ क्यों ?

 

अब इसके बिना कैसे अपनी ज़िन्दगी मैं काट पाऊँगा, यह विरह मुझसे नहीं सहा जायेगा, चालीस वर्ष हमने एक साथ व्यतीत किये, अब सभी बेटे बेटी अपनी अपनी ज़िन्दगी में मगन हैं, इस बुढापे में एक इसी का तो साथ था । मैं कैसे जी पाऊँगा, वह बार - बार अपने आप से एक ही प्रश्न दुहरा रहे थे, "सुनयना, क्यों मुझे छोड़ कर चली गयी तुम, तू ऐसा कैसे कर सकती हो" । उन्हें कहीं लगता, काश! सुनयना फिर से जी उठे?

 

पर इनमें से किसी को भी यह पता नहीं था कि सुनयना की आत्मा अभी क्या सोच रही होगी?

 

सुनयना की आत्मा परेशान और हैरान थी कि इतने लोग मेरे लिए आयें है? जीते जी इनमें से कितनों से भेंट हुए एक अरसा बीत गया था, और आज जब मैं मर चुकी हूँ तो ये?

 

आज कोई राहुल के लिए आया है तो कोई संजय के लिए, तो कोई इनके लिए, मेरे लिए तो शायद ही कोई आया हो? मुश्किल से कुछ जाने पहचाने चेहरे दीख रहें हैं, अरे इनमें से कितनों को मैंने आज तक देखा भी नहीं है I

 

और इस गुप्ता को और इसकी पत्नी को तो देखो, जीते जी जब यहाँ आती थी तो ये नज़र बचा कर कैसे निकल जाते थे और आज ऐसे दिखावा कर रहें हैं कि जैसे मेरी सबसे बड़ी हितैषी हो? वाह रे लोग और वाह रे ये दुनियां दारी? जीते जी किसी को मेरा ख्याल तक नहीं रहा और अब मरने के बाद इतना नाटक? सच कितना दिखावा भरा पड़ा है इस संसार में?

 

तभी सुनयना ने अपने पति की ओर देखा, उसकी आत्मा ने अपने पति के मनोविचारों को पढ़ लिया था, वह अपने पति के लिए बहुत उदास और बैचेन थी, मेरे बाद मेरे पति का क्या होगा? वे तो बिलकुल अकेले पड़ गए? राहुल. संजय, समरेश, किसी के भी साथ वह रहेंगे नहीं, खुद्दारी उनके नस नस में बसी है, किसी पर भी बोझ बन कर रहना उन्हें पसंद नहीं? एक कप चाय बनाने तो सीखी नहीं, सब दिन मेरे ऊपर निर्भर? पता नहीं आगे की ज़िंदगी मेरे बिना कैसे निभाएंगे?  ढेरों तरह के सवाल – जवाब सुनयना के अन्दर आ जा रहे थे?

 

बहुत दुखी थी सुनयना की आत्मा, अपने परिजनों से मिलने, उनसे बातें करने को?  वह सबसे लिपट कर रोना चाह रही थी, सच, मेरे मरने की उम्र भी तो नहीं थी, क्यों मरी मैं अभी? अभी मैं क्यों मरी? बार बार यह प्रश्न उसे बुरी तरह परेशान कर रह था काश! मैं अपने शरीर में समां सकती?

 

सुनयना की आत्मा ने तड़प कर भगवान से यह प्रश्न कर डाला, “भगवान! यह अन्याय मेरे ही साथ क्यों? मेरे ही साथ क्यों? मेरे ही साथ क्यों? क्यों? क्यों? क्यों?

 

वहां उपस्थित सभी सज्जन, औरत, मर्द, सब इसी आसरे में थे कि कब पंडित आवे और कब दाह कर्म का कार्य शुरू हो? सब चुप चाप गुम सुम से थे, पर उनमें से ही कुछ जन आज न्यूज़ पपेर में छपी स्पेन के वर्ल्ड कप पर जीत की के बारे में बात चीत करना चाह रहे थे, तो कोई विम्बलडन में नाडल की जीत पर, तो कोई आज के ताजा राजनैतिक समाचारों पर, बोलीवुड की फड़कती खबर पर, इसमें उनका भी कोई कसूर नहीं था, यह उनके जीवन की दिन चर्या बन गयी थी ।

 

पर आज अचानक सुबह सुबह यह अशुभ समाचार सुन कर सभी विवश और निराश थे, दुःख तो उन्हें हुआ पर उनकी अपनी विवशता थी, आज यह माहौल ही बदला बदला सा था, उन्हें पच नहीं रहा था, पर दुनियां दारी, सामाजिक बंधन, इसे भी तो निभाना पड़ता है । सच! यह संसार भी कितना अजीब है, लगता है कि किसी की मृत्यु भी बस एक न्यूज़ बन कर रह गयी है, बस एक समाचार और कुछ भी नहीँ?

 

आज कल के न्यूज़ चैनल को उठा कर देख लीजिये, किसी स्लेब्रेटी के मरने की खबर हो, सारे के सारे न्यूज़ चैनल उस समाचार की धज्जी छुड़ा कर ही चैन लेंगे, पता नहीं कहाँ कहाँ से ऐसी खबर बना देते हैं, उन्हें तो बस अपनी टी आर पी की चिंता है? 

 

सभी न्यूज़ को इस तरह से ये निचोड़ते हैं कि मरने वाले की आत्मा रो पड़ेगी और चिल्ला चिल्ला कर कहेगी, बंद करो यह तमाशा और नाटक? मैं क्यों मरा, आकर बतलाऊँ? पर, काश ऐसा हो पाता?

 

सब चुप चाप बस पंडित जी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, तभी किसी ने खबर दी "पंडित जी आ गए हैं", सब ने राहत की साँस ली, चलो अब अंतिम संस्कार का कार्य प्रारंभ हो जायेगा, अब और ज्यादा देर प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी ।

 

जिन्हें शव यात्रा में शामिल हो कर घाट तक जाना था, वे सारे लोग अपने अपने फ्लैट में जाकर कपडे बदले और नाश्ता पानी कर लिया, पता नहीं कितना वक्त लग जाये? सभी की चिंता अलग अलग थी, कोई सुगर का मरीज था, तो किसी को अपने आफिस से छूट्टी लेनी थी, कोई इस चिंता में था कि दूकान समय पर खुले, पर घाट जाना भी तो जरूरी था, नहीं तो राहुल क्या सोचेगा?

सुनयना को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि लोग ऐसा भी सोंचते होंगे? घाट उन्हें मेरे लिए नहीं राहुल के लिए जाना है, उन्हें चिंता है कि राहुल क्या सोचेगा अगर वे घाट नहीं जायेंगे? वाह! कितना अजीब संसार है?

हाँ, यह संसार ऐसा ही है, कोई मरे, कोई जीए, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, सबको बस अपनी पड़ी है, पर सबकी एक ना एक दिन यही गति होगी, उस दिन..................................?

 

पंडित जी ने आते ही राहुल से कहा, "माता जी को अग्नि कौन देगा?

 

राहुल ने डैड से पूछा, "डैड, मम्मी को मुखाग्नि कौन देगा, सब तैयार हैं, बस आप जिसे कहेंगे वही मुखाग्नि देगा" । "राहुल तुम ही मुखाग्नि दोगे", बनवारी लाल ने स्पस्ट रूप से राहुल को यह उत्तरदायित्व सौपां । वैसे भी बड़े बेटे होने के नाते यह राहुल का ही उत्तरदायित्व बनता था । पंडित जी ने राहुल से कहा की नाई आ गया है क्या? तुम्हें सर के बाल मुडवाने होंगे" ।

 

"जी, हमने नाई को पहले से ही बुला कर रखा है", राहुल को पता था कि जो कोई भी मुखाग्नि देगा उसे सर के बाल मुडवाने पड़ते हैं, ।

 

"ठीक है, राहुल बाबू आप बाल मुडवा लीजिये और स्नान कर शीघ्र आ जाईये, मुझे एक और जगह अभी तुरंत जाना पड़ेगा, वहां भी किसी कि मृत्यु हो गयी है, वहां ही सभी बड़ी बेसब्री से सब मेरी प्रतीक्षा कर रहें होंगे" ।

 

"बस पंडित जी, मैं अभी गया और आया, आप कार्य प्रारम्भ कर दिजीये" ।

 

पंडित जी इन कार्यों में बड़े प्रोफेसनल थे, उन्हों ने सब तैयारी शुरू कर दी और थोड़े ही समय में सुनयना देवी का पार्थिव शरीर अपने अंतिम यात्रा पर निकलने को तैयार था, वहां उपस्थित सभी सज्जनों ने मन ही मन पंडित जी की तारीफ की, यह पंडित तो बड़ा काबिल है, हम भी इसी को बुलाएँगे अपने यहाँ जब किसी की मृत्यु होगी, कितना झट पट सारे काम निबटा दियें, वाह, पंडित हो तो ऐसा ही हो, बेकार की ताम झाम से क्या फायदा । राहुल भी सर मुंडवा कर सफ़ेद धोती लपेटे वहां पहुँच चुका था, पंडित जी ने अंतिम यात्रा की पूजा विधि विधान के के साथ प्रारंभ कर दी ।

 

पंडित जी ज्ञानी पुरुष थे, उन्हों ने देखा कि सारा वातावरण दुःख के सागर में डूबा है, ऐसे समय में श्री मद भगवत गीता में श्री कृष्ण द्वारा दिए गए सन्देश से सब का मन शांत हो जायेगा, श्री मद भगवत गीता की यही तो विशेषता है, अज्ञानी पुरुष भी इसके सुनने मात्र से थोड़ी ही देर के लिए सही, इस संसार के मोह माया के बंधन से मुक्त तो हो ही जाता है, फिर माता जी की आत्मा अभी यहीं विचर रही होगी, उन तक भी मेरी वाणी पहुंचेगी तो उन्हें भी बड़ी शांति मिलेगी

 

पंडित जी ने राहुल से कहा कि मैं अब श्री मद भगवत गीता में श्री कृष्ण द्वारा दिए गए सन्देश को सुनाता हूँ, उन्हों ने वहां उपस्थित लोगों से निवेदन किया कि आप सभी से विनती है कि आप भी इसे ध्यान पूर्वक सुनें, इसके सुनने से आप का ही कल्याण होगा,

श्री मद भगवत गीता में श्री कृष्ण ने कहा है!

“न जायते म्रियते वा कदाचिन, त्रायम भूत्वा वा न भूयः

अजो नित्यः शाश्व्तोयम पूराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे I।

किसी ने कहा "पंडित जी, इसका अर्थ हमें समझाए" ।

पंडित जी ने कहा कि इसका अर्थ बड़ा सरल है,

"जीवात्मा किसी काल में ना तो जन्मता है और ना ही मरता है, ना यह उत्पन्न होकर फिर होने ही वाला है क्योंकि इसे शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता, और ना वायु सूखा सकती है”!

 

पंडित जी ने पुनः कहा, “जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नए वस्त्र को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर नए शरीरों को प्राप्त होता है’!

 

"समूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे, और मरने के बाद भी अप्रकट थे, बीच में ही प्रकट हैं, जीवात्मा की इस शरीर में बालकपन, जवानी और वृधावस्था होती है, वैसे ही नयी शरीर की प्राप्ति होती है,!

“जन्में हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म पुनः: निश्चित है, ऐसी स्थिति में मृत शरीर के लिए शोक करना व्यर्थ है”!

 

“यह आत्मा अच्छेध्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेध्य, और नि:संदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर, रहने वाला और सनातन है, यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्य्य है और यह आत्मा विकार रहित है, यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है”!

 

“परमात्मा इस आत्मा के साथ गुप्त रहता है, यह अचिन्त्य है, अतः इसे विकार रहित कहा जाता है, जब परमात्मा जीव के साथ है तो जीव का अहित नहीं होता”!

पंडित जी ने श्री मद भागवत गीता श्लोकों को उद्हरीत करते हुए सरल भाषा में अर्थ की व्याख्या की और फिर कहा,

 

श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को समझाते हैं!

 

“जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्यों कि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है”!

हे अर्जुन! “मेरे जन्म और दिव्य कर्म अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं -- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है”!

फिर भी, हे अर्जुन! “यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मनेवाला तथा मरनेवाला मानता हो, तो भी तू शोक करने योग्य नहीं है”!

 

पंडित जी बनवारी लाल और उनके पुत्रों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हुए कहा, जो मनुष्य दुःख और विपत्ति के इस गाढे समय में भी अपने धर्म और कर्म का निर्वाह भली भांति करता है, वही उत्तम पुरुष है, माता जी ने जीते जी अपना धर्म और कर्म निभाया, अब इनकी इस शरीर को जो अब मिट्टी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं, अपने अपने धर्म कर्म के अनुसार इसका अंतिम संस्कार विधि विधान से करना आपका उत्तरदायित्व बनता है, इसके लिए शोक करना व्यर्थ है I

 

आप जितने दुखीं होंगे, उनकी आत्मा उतनी ही तड़पेगी, अपने जीवन काल में वे आप सभी को खुश और हंसते देखना चाहती थी, अब आप इन्हें ख़ुशी ख़ुशी विदा करिए, ऐसा करने से इनकी आत्मा को शांति मिलेंगी I

 

इतना कहा कर पंडित जी ने कहा कि अब इस पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार का प्रबंध करें I

उस पूरे माहौल में पंडित जी की ही आवाज गूँज रही थी, सभी के चेहरे शांत शांत से दीख रहे थे, शायद उपस्थित लोगों को इस जीवन का गूढ़ रहस्य समझ में आ गया हो? पर उन्हें क्या पता, अगले ही छण पुनः इस जीवन लीला के चक्र में फँस कर रह जायेंगे?

 

सुनयना को पंडित जी की बातें सुन कर बड़े राहत का अनभव हुआ, उसे मृत्यु का रहस्य जो समझ में आ गया था, अब सुनयना की आत्मा बिलकुल शांत थी, थोड़ी ही देर के बाद उसका यह नश्वर शरीर अग्नि को समर्पित हो जायेगा, पर अब उसे पता था कि अग्नि केवल उसके मृत शरीर को जलायेगी, उसे नहीं, क्योंकि वह तो अजन्मा है I

 

पंडित जी ने राहुल से कहा कि यहाँ का अंतिम विधि विधान समाप्त हो चूका है, अब इस पार्थिव शरीर को रंथी पर लिटा दो, परिवार के महिलाओं से उन्हों ने कहा कि “आप लोग माता जी को सजा दीजिये, क्यों कि ये सधवा मरीं हैं अतः अच्छी तरह इनका श्रृंगार कीजिये, बहुत कम औरतों को ऐसा भाग्य मिलता है, पुरुष लोग थोड़ी देर के लिए यहाँ से बाहर चले जाएँ” I

 

इतना कह कर पंडित जी ने राहुल से कहा कि " मेरा कार्य अब समाप्त हो गया, अब मैं जा रह हूँ, वैसे भी घाट पर घाट के नियमानुसार क्रिया कर्म हो जायेगा, वहां पर मेरा कोई काम नहीं है" I

 

राहुल ने अपने पर्स से कुछ रुपैये निकाले और बड़े आदर सहित पंडित जी को देते हुए कहा, "यह आपकी दक्षिणा, कृपया इसे स्वीकार कर लीजिये, अगर कोई कमी रह गयी हो तो कह दीजिये, क्योंकि मुझे इसका कोई अनुभव नहीं है" I

 

पंडित जी बड़े सज्जन व्यक्ति थे, बोले. "अरे नहीं राहुल बाबू, आपने जो भी दिया वो बहुत है, अच्छा अब मैं चलता हूँ, मुझे आज्ञा दीजिये", इतना कह कर पंडित जी वहां से निकल पड़े I

 

सुनयना की अरथी सज चुकी थी, बिलकुल नयी नवेली दुल्हन की तरह सजाया गया था सुनयना के पार्थिव शरीर को, लाल सुर्ख जोड़े की साड़ी, हाथों में लाल लाल चूड़ियाँ, मांग को लाल रंग की सिन्दूर से पूरी तरह भर दिया गया था, कुछ जेवर भी थे गले में, कुल मिला कर दुलहन लग रही थी सुनयना I

 

परिवार के सभी सदस्य बारी बारी से अपना प्रणाम अर्पित कर रहे थे, कोई फूल माला चढ़ा रहा था, तो कोई हाथों से ढेर सारे फूल अर्पित कर रहा था, एक अजीब सा सन्नाटा छाया था, सब से अंत में बनवारी लाल जी आये, उन्हों ने सुनयना के माथे पर एक चुम्बन लेकर अपना आशीर्वाद दिया I

 

वातावरण काफी भारी और बोझिल हो रहा था, स्वाति, उषा. ईशा के आंसू रोके नहीं रूक रहे थे, सभी बेटों की आँखे भी नम थी, कोई वहां से हटने को तैयार नहीं था क्योंकि सब को पता था कि यह अंतिम छण हैं, सभी अपने अपने तरीके से सुनयना की अन्तिम तस्वीर अपने मन में समां लेना चाहते थे I

 

सुनयना की आत्मा भाव विभोर हो उठी, कितना प्यार करते हैं सब उससे, काश! वह फिर से अपने इस शरीर में प्रवेश कर पाती, पर उसे पता था कि वह मर चुकी है, अब उसे इसमें कोई शंका नहीं थी, बस, वह अपने अंतिम यात्रा पर निकलने को तैयार थी I

 

तभी बनवारी लाल जी ने जहा, "राहुल, अरथी को अब बाहर निकालो, घाट पर जाने का समय हो रहा है" I

राहुल ने अपने सभी भाईयों को आवाज दी, बेटे और दामाद सब ने मिल कर काँधे दिया और नीचे एपार्टमेंट में लिफ्ट से पहुंचे, वहां नीचे धरती पर थोड़ी देर के लिए सुनयना के पार्थिव शरीर को रख्खा गया, एपार्टमेंट के सदस्यों ने श्रधांजलि दी, अरथी को शव वाहिनी में रख कर "राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है, की गूँज के साथ सब घाट की ओर प्रस्थान कर गए I

 

कहीं दूर से स्पीकर पर एक पुराना गाना बज रहा था......................?

"ओ जाने वाले हो सके तो लौट कर आना" पर?

काश! ऐसा हो पाता?

 

थोड़ी ही देर में शव वाहिनी सुनयना की अरथी के साथ स्मशान घाट पहुँच चुकी थी, सुनयना के पार्थिव शरीर को वाहन से उतार कर सीधे काँधे पर रख्खा गया और सभी स्मशान भूमि की ओर चल पड़े I

सुनयना धर्म कर्म में विश्वास करने वाली महिला थी, नित्य मंदिर जाना उसका नियम था, पूजा पाठ बराबर उनके वहां होता रहता था, राहुल ने अपने डैड से पूछा कि "बिजली घर में दाह संस्कार किया जाए या परंपरागत तरीके से लकड़ी पर चिता सजा कर"?

 

उपस्थित परिवार के सदस्यों ने एक स्वर में कहा," परंपरागत तरीके से लकड़ी पर चिता सजा कर" I

 

राहुल की भी यही इच्छा थी, फिर भी उसने सब की राय से ही अंतिम निर्णय लेना उचित समझा I घाट के नियमानुसार लकड़ी की चिता सज कर तैयार हो गयी, चिता पर चन्दन की कुछ लकड़ियाँ भी डाल दी गयी, पवित्र मंत्रोच्चारण के बीच राहुल ने अपनी मां को मुखाग्नि दी और अंतिम प्रणाम किया, सभी ने वैसा ही किया और चिता की परिक्रमा की, फिर सब पास में ही जिन्हें जहाँ जो जगह मिली वहां बैठ कर चिता के जलने और उसके बाद चिता के शांत होने की प्रतिक्छा करने लगे ।

 

बनवारी लाल जी भी एक कोने में शांत भाव से चिता से निकलती अग्नि की ज्वाला और उसके लपट को निहार रहे थे, शायद किसी कोने से उन्हें विलीन होते हुए सुनयना अभी भी दीख जाये और वे कह उठें "मत जाओ सुनयना हमें छोड़ कर मत जाओ? कैसे रह पाएंगे हम तुम्हारे बिना?

 

पर सुनयना की पार्थिव शरीर धीरे धीरे अग्नि में विलीन होती रही! सुनयना इस नश्वर संसार को छोड़ कर जा चुकी थी, उसकी चिता बिलकुल शांत हो चुकी थी, उसकी आत्मा भी सब शांत थी, पंडित जी के गीता के प्रवचन से उसे बड़ी रहत मिली थी, वह अब इस प्रतीक्षा में थी कि अब आगे क्या?

 

तभी एक ज्योतिर्मय पूंज, जिसकी चमक से सुनयना की आत्मा चका चौंध हो रही थी, पास आयी, सुनयना ने बड़े हैरत से उसे देखा, उसे अनुभव हुआ कि उस ज्योतिर्मय पूंज के ठीक बींचों -बीच "ॐ" का प्रतीक चिन्ह है, उसे लगा यह अवश्य परलोक से आया है, तभी उसे एक मोहक सी मधुर आवाज सुनायी दी!

 

“आप सभी आत्माएं जो इस वक्त यहाँ उपस्थित हैं, मर्त्य लोक छोड़ चुकी हैं, अब आप परलोक के निवासी हैं, आप सभी मेरे साथ उस परमलोक की ओर चलें जो आपका स्थाई निवास है, प्रभु आप सभी की राह बड़ी बेसब्री से देख रहें हैं, मैं आप सभी को अपने में सिमट कर बस प्रस्थान करने ही वाला हूँ I

 

इतना कह कर उस ज्योतिर्मय पूंज ने सभी आत्माओं को अपने में सिमट कर परमलोक की ओर प्रस्थान कर गया I

 

सुनयना ने "ॐ" प्रतीक चिन्ह देख “प्रभु शिव" की उपासना की, तभी उसे रचनाकार "ललित" की लिखी कविता "शून्य" की कुछ पंक्तियाँ याद आयी,

“सत्यम, शिवम्, सुन्दरम, शिव ही सत्य है, शिव ही सुंदर है,

“जीवन, शिव से ही आता है अंततः शिव में ही समा जाता है"I

"शिव ही सम्पूर्णता का द्योतक है, सम्पूर्णता ही शून्य है,

हाँ, जीवन भी तो आखिर शून्य ही है, शून्य ही है, शून्य ही है" I                                                                                        

 

"सुनयना उसी शून्य में विलीन होती गयी, विलीन होती गयी विलीन होती गयी और अंततः शून्य में खो गयी"?

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इस कहानी को लिखने की प्रेरणा के पीछे एक घटना का जिक्र आवश्यक है,

 

मेरे एक मित्र के पत्नी की मृत्यु इसी मुंबई शहर में कुछ वर्ष पहले अचानक दिल का दौरा पड़ने से हो गयी, मैं उनके फ्लैट पर दिवंगत आत्मा के अंतिम दर्शन करने गया, पर मुझे इस बात की जानकारी दी गए कि पार्थिव शरीर को एक अस्पताल के शव ग्रीह में सुरक्षित रख दिया गया है, अब कल ग्यारह बजे पार्थिव शरीर को एपार्टमेंट में लाया जायेगा फिर उसी समय वर्सोवा दाह ग्रीह में ले जाया जायेगा अंतिम संस्कार के लिए I 

 

मैं वापस लौट आया एक गहरी चिंतन के साथ, कि कुछ छण पहले जो औरत इस फ्लैट की मलकिनी थी, उसे मरणोपरांत एक रात के लिए भी फ्लैट में रखने के लिए जगह तक नसीब नहीं?, मेरे अंतर्मन में एक गहरी पीड़ा का अनुभव हुआ, मेरे मन के अंदर यक्ष के प्रश्न की तरह एक प्रश्न कौंधता रहा कि इस औरत की आत्मा कहाँ भटक रही होगी और पता नहीं किन किन पीड़ाओं से गुजर रही होगी?

 

मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और उन्हीं काल्पनिक विचारों को उसी छण मैंने बस शब्दों में पिरो कर उस अनुभव को पिरो डाला जो आज आपके समक्ष "और सुनयना कहाँ खो गयी?" कहानी के रूप में प्रस्तुत है I 

 

वैसे तो इस कहानी में सुनयना के मृतात्मा की अंतर्मन की पीड़ा को इसमें पिरोने का प्रयास किया गया है जो पूरी तौर पर मेरे अपने मन की कल्पना पर आधारित है, पर संभव है कि हो सकता है वास्तव में ऐसा कहीं घटित हो रहा हो I

 

यह मेरा बिलकुल ही व्यक्तिगत दृष्टिकोण और विचार है.......?

 

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                                                                     काश और वे लम्हे

 

 

काश ! “और वे लम्हे ?

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बिहार के अररिया जिले के अंतर्गत भारत - नेपाल बोर्डर पर विराटनगर से केवल बारह  किलो मीटर दूरी पर  अवस्थित “फारबिसगंज ”, अर्थ व्यवस्था और व्यापार का बहुत ही बड़ा और मुख्य केंद्र रहा है Iपच्चास के दशक में यहाँ का मुख्य व्यापार जूट और धान की फसल थी, जो मुख्य रूप से मेवाड़  और राजस्थान से आकर बस गए मारवारियों के पास था ।

 

फारबिसगंज मेला, धरमगंज मेला, खगरा  मेला – ये वे नाम हैं जिनसे राज्यभर में अररिया जिले को लोकप्रियता हासिल है, अब जब  ये मेले अब अपनी पहचान खो रहे हैं, तब उन दिनों  फारबिसगंज मेले का एक अलग ही विशिष्ट स्थान था, और उस ज़माने में इसकी लोकप्रियता, बस देखने ही लायक थी ।  

 

अक्टूबर माह के समाप्त होते होते "धन कट्टी" (धान काटने की परंपरा को बोल चाल कि भाषा में वहां के निवासी "धन कट्टी" कहा करते हैं),  के बाद आस - पास के गावं वाले अपनी - अपनी फसल को बेचने के लिए फारबिसगंज आया करते थे I "धन कट्टी" समापन के पश्च्चात ही काली पूजन के दिन फारबिसगंज मेले का शुभारम्भ हो जाता था I

 

फारबिसगंज मेला, "माँ काली देवी का मेला" के नाम से भी विख्यात है I इस मेले में "माँ काली" की भभ्य मूर्ति स्थापित की जाती है, जिनका  पूजन पूरे मेले की अवधी में होता है । काली देवी का यह मेला - प्रत्येक र्वष अक्टूबर - नवम्बर माह में काली पूजन के साथ साथ ‘आयोजित किया जाता रहा है I सरकारी तौर पर तो पंद्रह दिन का मेला लगता था, पर शुरू और अँत होते होते यह लगभग एक माह चल ही जाता है I माँ काली की मूर्ति के विसर्जन के साथ साथ मेले के समापन की  उदघोषणा  की जाती है ।

 

जलेबी, हवा मिठाई, पिपरा के खाजे, मीना बाज़ार, जादू टोना, झूले, सर्कस, मौत का कुआँ, नौटंकी, पशु बिक्री और न जाने कितने रंग समेटे ये मेले अब अपनी पहचान खो रहे हैं। आधुनिकता का संजाल, ग्रामीणों का पलायन और बदलते जीवन शैली ने इन मेलों का महत्व  कम कर दिया. हर साल शीत  माह में लगने वाले इन मेलो में अब वह आकर्षण  नहीं दीखता जिनके लिए ये सदियों से मशहूर रहे हैं I

 

सन १९५४ की वह दीपावली, और मेले की वो शाम कैसे भूल सकता हूँ मैं, सब कुछ आज भी आईने की तरह साफ़ साफ़ दिखता है I आज के ही दिन  माँ  लक्ष्मी  और माँ काली  की पूजा बड़े ही धूम धाम से आयोजित की जाती है I हमारे घर पर विशेषकर इस पूजा का आयोजन बड़े पैमाने पर संपन्न किया जाता था I परिवार के  सभी सदस्य की उपस्थिति अनिवार्य थी I हमारे बाबूजी (चौधरी सुरेँद्  प्रसाद)   की यह कड़ी हिदायत थी कि परिवार के सभी लोग  जहाँ कहीं भी किसी भी शहर में हो, दीपावली में निश्चित  रूप से सम्मिलित हों, बाबूजी का यह आदेश सभी कोई बड़े आदर भाव से पालन करते थे I  

 

बाबूजी का परिवार बहुत ही लम्बा चौड़ा था, बाबूजी के  अपने ही खुद के सात बेटे थे, और तीन बेटियाँ थी, तीन बेटे और दो बेटियों की शादी हो चुकी थी I साथ में बाबूजी के दो  भाई और उनकी पत्नियां और उनके बाल बच्चे भी बाबूजी के ही साथ रहते  थे  I बड़ा आदर था बाबूजी का पूरे परिवार में, वास्तव में बाबूजी एक पितामह की तरह अपने परिवार में पूजे जाते थे I

 

बाबूजी बड़े संभ्रांत और धनि व्यक्ति थे अपने इलाके के, एक तरह से उन्हें जमींदार भी कहा जा सकता है क्योंकि बहुत जमीन जायदाद थी, आढ़त का व्यवसाय था, बोरियां की  बोरियां चावल, दाल, तेल बाहर सप्लाई होता था, घर के सभी बड़े सदस्य इसी व्यवसाय से जुड़े थे, सभी एक साथ एक छत के नीचे रहा करते थे, आपस में भाई चारा जबरदस्त था, बहुत इज्जत थी पूरे शहर में, शहर के मुनिसिपलिटी के वे चेयरमेन थे ।

 

बहुत बड़ा मकान और हाता था बाबूजी का, लगभग एक एकड़ जमीन में उन्हों ने बीच "फारबिसगंज शहर" में मकान बनबाया था I मेरी माँ, बाबूजी की पत्नी (कौशल्या देवी), एक नेक और सीधी सादी संभ्रांत घर की महिला थी, पूरा घर उनकी ही देख रेख में चलता था I धर्म, पूजा पाठ और ईश्वर पर बड़ी ही आस्था थी उनकी, स्वयं भी नियमित रूप से रोज पूजा पाठ संपन्न करने के पश्चात ही अन्न - जल  ग्रहण किया करती थी, यह उनकी ही आस्था का फल था की आज उनका पूरा परिवार दीपावली पूजन के पावन अवसर पर एकत्रित था I

 

उस जमाने की दीपावली भी, क्या दीपावली होती  थी,  परमपरागत शैली से शहर को सजाया जाता था, बांस काटने  वाले मजदूरों की कारीगरी का क्या कहना था,  कचचे बांस को काट कर इन्हें विभिन्न   आकार की करचियों का स्वरुप दिया जाता था,  केले के थम्ब और   इन बांस की करचियों  को मिलाकर इन्हें नया नया रंग रूप दिया जाता था  ।

 

दीपावली की  रात जब इन करचियों पर सने मिटटी के ऊपर रखे तेल के दीये जल उठते थे तो इनकी छंटा बस देखने लायक होती थी I  वास्तव में उन दिनों शहर में बिजली तो थी नहीं, सारा शहर  सालों भर रात के अँधेरे में डूबा रहता, बस साल में एक बार दीपावली  की शाम को सारा शहर  इन दीयों की रोशनी से जगमगा उठता था, दीयों की रोशनी,  हवा की हल्की झोंको से लहरा लहरा कर इस तरह जलती मानों नयी नवेली दुल्हन अपनी मस्ती में बलखा बलखा कर चल रही हो, क्या अद्भुत दृश्य हुआ करता था,

 

पर अब कहाँ ? अब इन बिजली की चमक ने उन दीयों की चमक को बस अपने में निगल लिया हो, अब तो बस नाम मात्र के दो चार  दीयेँ जला लिए और बिजली के बल्ब  लटका   दियें,  हो गयी  दिवाली   की रस्म पूरी । १९५४ की दीपावली की वह यादगार शाम !  अब तो बस केवल यादें रह गई हैं ?

 

हाँ, १९५४ की दीपावली की उस  यादगार शाम की एक एक तस्वीर मेरे मानस पटल पर आज भी आईने की तरह साफ़ साफ़ दिख रही है । घर के बरामदे में बाबूजी बैठे हुए थे, उन्होंने हमारे पूराने नौकर पोखरिया को आवाज दी ? 

 

"अरे पोखरिया, दीया बत्ती सब ठीक कर लिया है ना", बाबूजी ने जोर से पोखरिया को पुकारते हुए बोले I

 

"जी मालिक,सब फिट है, ऊ  बदरिया भी केले का सब थम्ब काटकर  लगा दिया है, अब उसमें करची घोपने का काम में  लगा हुआ है, शाम होते होते ऊ अपना काम निबटा लेगा, फिरू तो हम उसमें मिटटी सान के चिपका देंगे, बस, बाकी सब बबुआ लोगन दीया बत्ती ठीक करन में जुटल हैं, सारा सामान मंगवा लिए हैं, आप कौनों चिंता नहीं करो मालिक", इतना कह कर पोखरिया बाबूजी के पैर थाम कर पैर टीपने की मुद्रा में बैठ गया I

 

"अरे अभी छोड़ दो आज, अभी पैर दबवाने का मन नहीं हो रहा है”,  और हाँ कुरसी - टेबुल सजा कर लगा दो, महराज (बावर्ची)  को बोलो कि  सबका चाय बाहर ही लगा दे, थोडा प्याज वाला कचड़ी  भी छान कर चाय साथ लगा देगा, और हाँ सब को खबर कर दो कि सभै का चाय बाहर में लग रहा है, सब लोग तैयार होकर आ जाएँ, मलकिनी को भी बोल देना" I बाबूजी पोखरिया को सारी हिदायतें देकर ही चुप हुए I

 

"जी मालिक", हम अभी सबको आपका हुकुम पहुंचा देते हैं I इतना कह कर पोखरिया वहां से बाबूजी के हुक्म की तामिल हेतु प्रस्थान कर गया I

 

एक एक कर बाबूजी के परिवार के सभी सदस्य वहां पहुँच चुके थे, मेरी मां जिन्हें सब नौकर चाकर "मलकिनी" कह कर बुलाते थे वो भी यहाँ आ चुकी थी , चाचा जी, चाची, सभी वहां मौजूद थे, बाबूजी का जो हुक्म था ।

 

महराज ट्रे में चाय और प्याज वाला कचड़ी ले आया था, चाय की चुस्कियां लेते लेते बाबूजी ने अपनी पत्नी से पूछा "हाँ तो पूजा की तैयारी हो गयी ? पंडित जी कितने बजे आयेंगे ? 

 

"जी, साढ़े छः बजे का टाइम दिया है", कौशल्या देवी ने कहा, "तब तक अँधेरा भी हो जायेगा" ।

“और दीया बत्ती, मिठाई, सब इन्तेजाम हो गया है न, कुछ घटता है तो बोल दो, अभी मंगवा लेते है” । 

 

"नहीं, आप चिंता फिकर न करें, सब तैयार है”,

 

फिर कौशल्या देवी ने सभी की ओर देखते हुए कहा कि "सब लोग ठीक छः बजे तैयार होकर पूजा घर में आ जइयो, और सब लोग नया कपड़ा जो सिलवाया है वही पहनना, आज के दिन नया कपड़ा पहनने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं" । 

 

बाबूजी ने कहा, "अरे धीरेन, और मेले का क्या खबर   है, मेले की सब तयारी हो गयी है क्या ? बी.डी.ओ. साहब से तुम्हारी भेंट तो हुई होगी" ?

 

जी बड़े भैया, आज ही दोपहर में भेंट हुई थी, उन्हों ने कहा कि कल से मेला पूरे जोर शोर से शुरू हो जाएगा । 

"इस बार मेले में क्या क्या आया है, कै ठो सिनेमा घर   चल रहा है”?

 

"बड़े भैया,  बी.डी.ओ. साहब बतला रहे थे कि इस बार चार चार सिनेमा घर को लाइसेंस मिला है चलाने के लिए, और एक सर्कस, दो दो नौटंकी भी है, बोल रहे थे कि खूब चहल पहल और रौनक रहेगी । 

 

 "अच्छा ई पता चला कि कौन कौन फिलिम  आ रहा है" ?  

 

"जी बड़े भैया, सुन रहें हैं कि ई बार "नागिन" फिलिम सबसे ज्यादा  चलने वाली है" । 

"अरे, वही ना, जिसका ऊ गाना बड़ा हिट  हुआ है,  क्या तो है ? बाबूजी याद करने की कोशिश कर ही रहे थे तब तक नतिन, बड़े भैया बोल उठे, "मन डोले मेरा तन डोले” !

 

"हाँ, हाँ वही”

 

अरे धीरेन, बी.डी.ओ. साहब से कह कर ऊ पिकचरवा का “पास” लिए बनवा लो सब के " ?

 

उन दिनों सिनेमा देखने के लिए “पास” लेकर देखना बहुत बड़ी बात होती थी, ऐसा नहीं था कि बाबूजी टिकिट नहीं खरीद सकते थे, टिकिट भी सस्ता ही था, फर्स्ट क्लास का डेढ़ रुपैया, पर पास लेकर देखने वाले के लिए सिनेमा हाल मेँ फर्स्ट क्लास से पहले का एक कतार सुरख्छित रख्खा जाता था, जिसमें आराम दायक कुर्सियां लगाई जाती थी, इसे वी. ई. पी. क्लास कहते थे, शहर के सभी गण्य - मान  और प्रतिष्ठित व्यक्ति को ही पास “इसु” किया जाता था , पास सिनेमा कामैनजर “इसु” करता था ।

 

उस वक्त शहर  के बी.डी.ओ. साहब और  दारोगा जी बहुत बड़े हाकिम हुआ करते थे, एक तरह से वो जो बात कह देते, शहर के किसी भी व्यक्ति की क्या मजाल कि उस बात को टाल पाते ।

 

मेले का सारा प्रबंध बी.डी.ओ. साहब और दारोगा जी के ही जिम्मे था, धीरेन   की  बी.डी.ओ. साहब और दारोगा जी दोनों से अच्छी बनती थी या यूँ कहें दोस्ताना था, साथ उठना बैठना, और कभी महफ़िल भी लग जाती थी जिसमें पीना पिलाना भी चलता था, धीरेन   बड़ा ही प्रैक्टिकल व्यक्ति था, इसलिए उसने इन लोगों से अच्छी दोस्ती बनाकर रखी थी, बाबूजी को ये बातें मालूम थी, इसलिए उन्हों ने धीरेन   से यह प्रश्न किया था ।

 

 कौन सा दिन ठीक  रहेगा जी ? बाबूजी ने अपनी पत्नी से पूछा "शनिचर या ईतवार ” ?

 

“ईतवारे को रखिये, सब के लिए ठीक रहेगा” ।

 

तभी धीरेन   अपने भाभी की ओर देखते हुए बोला, "ठीक है भौजी, हम  बी. डी. ओ. साहब से मिलकर पास का इन्तेजाम कर लेंगे, आप चिंता मत करो, और सब लोग ठीक से सुन लो, ईतवार का  दिन फिक्स हुआ है मेला जाने के लिए, दिन का खाना खाने के बाद सब मेला चलेंगे, बच्चों के लिए भी बहुत कुछ आया है इस बार, और पंजाब, लुधियाना से गरम कपड़ा का ढेर सा दूकान   आया है, जिसको खरीदारी करना है उसका लिस्ट उस्ट पहले से बना लो भाई, उससे आसानी रहेगी,  इतना कह कर धीरेन   ने बड़े भैया से कहा, "ठीक है न भैया" ?

 

बाबूजी ने सहमति में अपने सर को हिलाया, फिर पत्नी की ओर देखते कहा कि "ए जी, पोखरिया   के हाँथ एक कप चाय और मेरा पान भेजवा दो, चाय पीकर हम भी तैयार हो जाते हैं, मेरा बंडी, कुरता  और धोती  निकल कर रख देना, पोखरिया  को कह दो कि एक बाल्टी गरम पानी कर के गुसल खाने में रख देगा” ।

 

“और धीरेन, तुम एक दो सम्पनी या बैल गाडी का भी इन्तेजाम कर लेना, सभी लोग आराम से मेला जा पाएंगे” ।

 

धीरेन ने कहा, "सब हो जायेगा, बस आप फिकर मत करिए, हम और बिरेन हैं ना" ।

 

नतिन ने कहा,"चाचा जी, मेरे लिए भी जो काम होगा बताइयेगा" ।

सब लोग धीरे धीरे वहां से उठ कर पूजा के लिए तैयार होने को चल पड़े, बाबूजी ने गुड़ेगुड़े का लम्बा सा कश खींचा और चाय की प्रतीक्षा में अपने आराम कुर्सी पर लेट से गए ।

 

पूजा की सारी तैयारी हो चुकी थी, परिवार के सभी सदस्य पूजा घर में एकत्रित हो चुके थे, बस पंडित जी के आने की प्रतीक्षा  थी, तभी पोखरिया ने आकर सूचना  दी कि पंडित जी भी आ गए हैं ।

 

पंडित जी ने आते ही बाबूजी से कहा, "परनाम बाबूजी" ।

 

बाबूजी ने भी पंडित जी को सम्मान देते हुए कहा "पंडित जी, परनाम" ।

 

पंडित जी ने मेरी माँ से पूछा "मलकिनी, सब इन्तेजाम हो गईल बा", पंडित जी  भोजपुर इलाके के थे, वे भोजपूरी  में ही बातें करते थे । 

 

"हाँ पंडित जी, पूजा शुरू करिए", बस आपकी ही प्रतीक्षा हो रही थी । परंपरागत तरीके से पंडित जी ने मां लक्छ्मी और मां काली 

की पूजा अर्चना   संपन्न की, फिर उन्होंने आरती गाया,                       

 

"ॐ जय    लक्ष्मी माता, ॐ जय   काली   माता ........................!

 

पूजा संपन्न हो चुकी थी, पंडित जी ने अपना प्रसाद और दक्छिणा लिया और फिर बिना कोई समय गवाएं वहां से पूजा कराने हेतु दूसरे घर की ओर चल दिए, आज पूरी शाम के लिए जो वे बुक थे ।

 

इधर आरती की थाल में दीया सजा कर कौशल्या देवी  ने अपनी देवरानी से कहा, "ई परात में बहु ‘१०८ घी’ का  दीया पूजा घर जला कर  रख दिओ , और अपनी बड़ी बहु से कहा, ‘धीरेन   की बहु, बाहर बरामदे में भी जो रँगोली बनाया है उस पर ‘१०८ घी’ का दीया जला कर सजा दो, सब लोग प्रसाद ले लो और सब जगह दीया बत्ती कर दो”  ।

 

पुनः कौशल्या देवी ने महराज को रात के खाने के लिए ढेर सारी हिदायतें दी, "कहा, आज विशेष खाना बनेगा, खाना में आलू - मटर का दम, बैंगन - बड़ी की सूखी सब्जी, अरवा चावल, पूरी, चने की दाल और धनिया पुदीना की चटनी, ई सब बनेगा आज, और हाँ  ध्यान से सब खाना बनाने के बाद पहले भगवान जी को भोग लगाना मत भूलियेगा, आज का भोजन प्रसाद के रूप में खाया जाता है" । सब ठीक से समझ में आ गयल कि नहीं" ? कौनों गड़बड़ न  होई एकर ध्यान रखियो ?

 

"मलकिनी, अपने कौनों चिंता मत करियो. हम सब समझ गयलिये, जैसन कहलियो वैसने सब टाइम पर हम तैयार कर देव”,  महराज ने कहा ।

 

“बड़ी बहु, तू आलू मटर का दम का दम पका लियो, और मंझली बहु तू बैंगन - बड़ी की सूखी सब्जी ।

 

"अरे पोखरिया, गंगवा कहाँ है ? सब दीया में तेल बत्ती कर दिया है न", फिर नतिन, जतिन सब की ओर देखते हुए कहा "अब बाहर भी सब दीया जला लो, टाइम हो गया है", इतना कहने के बाद ही कौशल्या देवी ने दम लिया ।

 

सब अपने अपने काम में लग गए, पोखरिया और गंगवा ने बांस के थम्ब में घोंपे हुए करची पर सानी मिटटी चिपकाई और उसके ऊपर थोड़े थोड़े अंतराल पर दीया सजाना शुरू कर दिया, नतिन, जतिन सब ने मिलकर दीये में तेल डाला, और बत्ती सजा दी, सभी बाबूजी का इन्तेजार कर रहे थे कि पहला दीया वे प्रज्वलित कर दें फिर सब दीया जलाने का काम शुरू हो जायेगा ।

 

बदरिया ने इस बार कड़ी मेहनत से बांस और करची को मिलाकर मेन गेट के  द्वार को सजाया था, दोनों ओर केले के थम्ब में करची घोंप  कर उसके ऊपर की ओर गोलाकार आर्च टाइप का आकर दिया था, और बांसों के बीच बीच में बड़े डिजाईन से घोंपा था करची , सच, जगह जगह अशोक के पत्ते सजा कर, अपनी कारीगरी से उसने चार चाँद लगा दिया था ।

 

"अरे पोखरिया , छत पे दीया बत्ती किया है कि नहीं" ? धीरेन   ने पूछा ।

 

"जी मंझले मालिक, सब फिट है, अब बाबूजी दीया जला दें तो हम छत पे जाकर सभै दीया जला देंगे हाँ" !  

 

तभी बाबूजी खद्दर का धोती और कुरता, कुरते पर कथ्थई रंग की बंडी और काँधे पर शाल रख कर बरामदे में प्रवेश किया, सभी बाबूजी की ओर बस देखते ही रह गए, मेरी माँ ने आगे बढ़ पैर छुए और उनका आशीर्वाद लिया, फिर पूजा की थाली में से रोली और चन्दन का तिलक माथे कि लीलाट पर  किया, बाबूजी और भी चमक उठे, तभी पोखरिया ने एक थाल सामने कर दिया, थाल में माचिस, फूलझड़ी और छुरछुरी रख्खी थी, बाबूजी ने माचिस की एक तिल्ली जलाकर एक, दो दीये प्रज्वलित किये, फिर परिवार के सभी सदस्यों ने दीया प्रज्वलित करना प्रारंभ कर दिया ।

 

"ए जी, ये  , फूलझड़ी और छुरछुरी भी जला दीजिये", कौशल्या देवी ने अपने पति से कहा ।

 

"हाँ हाँ, लो, अभी जला देते हैं", बाबूजी ने फूलझड़ी और छुरछुरी दीये की रोशनी से प्रज्वलित किया, सारा वातावरण उस रोशनी से जगमगा उठा ।

 

सारे दीये जल चुके थे, उन दीयों की रोशनी ने अपने प्रकाश से  पूरे अन्धकार को दूर कर दिया था, पूरा  वातावरण और सजावट बस देखने ही लायक थी, कितने शांत स्वरुप में दीये और बत्ती जल जल कर  प्रकाश के किरणों की अद्भुत छंटा बिखेर रहीं थी, उन पर से आँखें हटाई नहीं जा रही थी, कुछ छंण सभी मन्त्र मुग्ध हो कर दीये से निकलती रोशनी और प्रकाश को बस निहारते रहे , तभी किसी ने अनारदाना प्रज्वलित कर दिया !

 

अनारदाने की चमकती सफ़ेद रोशनी की किरणों में सभी नहा उठे, फिर तो फूलझड़ी, छुरछुरी और अनारदाना के जलने की झडी लग गयी ।

 

शरद ऋतु का मौसम हल्की हल्की  दस्तक दे रहा था,   भीनी भीनी ठण्ड पड़नी शुरू हो गयी थी  जिससे   वातावरण खुशनुमा  और  सुहाना   हो गया था, ठण्ड के मौसम में उन इलाकों में रात में भगजोगनी  (जुगनू)   बहुत बड़े तादाद में निकला करती है, आज दीपावली की रात में इन  भगजोगनियों    ने  अपनी  धीमी धीमी सफ़ेद  टिमटिमाते  रोशनी से गज़ब की छंटा बिखेर रही थी,   क्या शमां थी,  शायद  इन्हें शब्दों में पिरोया नहीं जा सकता।

 

बाबूजी ने बदरिया, पोखरिया और गंगवा को ईनाम में दस - दस रुपैये दिए, बदरिया की आँखें नम थी, उसकी मेहनत सफल हो चुकी थी, अपनी तारीफ सुन कर वह शरमा रहा था, बाबूजी और मलकिनी दोनों के पैर छू कर उसने अपनी कृतज्ञता प्रकट की ।

 

शहर के आस - पास के तीन चार प्रतिष्ठित  व्यक्ति दीपावली की शुभ कामना व्यक्त करने हेतु पधार चुके थे, बाबूजी ने उन्हें सम्मान पूर्वक बरामदें में बिठलाया और पोखरिया  को आवाज दी ;

 

"अरे कुछ मिठाई, पकवान और चाय लेकर आओ, और चिलम भी सुलगा लेना, उन दिनों गुड़गुड़ा पेश करने का मतलब सम्मान पेश करना होता था, सभी बात चीत में मगन हो गए ।

 

परिवार के कुछ सदस्य शहर की दीपवाली का आनंद लेने हेतु घूमने निकल पड़े, बच्चें अपनी अपनी फूलझड़ी, छुरछुरी और अनारदाना जलाने और पटाखें छोड़ने में, मगन थे, घर कि औरतें चौका में रात के खाने की व्यवस्था में जुट गयी ।

 

"अरे धीरेन  , सुबह सुबह कहाँ चल दिए" ? बाबूजी ने पूछा ।

 

"जी बी. डी. ओ.  साहब के यहाँ पास के लिए जा रहा हूँ,  अभी भेंट नहीं हुयी तो फिर वे मेला के दौरे पे निकल जायेंगे" ।

 

"बड़े भैया, कितने लोगों का पास बनवाँ लूं" ।

 

"बीस पच्चीस पास तो बनवा ही लेना, और चार पांच पास सेकंड क्लास का भी, ई पोखरिया, गंगवा, महराज और बदरिया सभै  देख लेगा सिनेमा, और हो सके लड़कन सब के लिए सर्कस का भी पास बनवा लेना, नय तो  सर्कस देखने के लिए सब जरूरे हल्ला मचाएगा” ।

 

"जी बड़े भैया, हो जायेगा, आप चिंता मत करिए," इतना कह कर धीरेन   अपनी साईकिल पर सवार  हो ब्लॉक की ओर निकल पड़ा ।

 ब्लॉक पहुंचते ही बी. डी. ओ.  साहब से भेंट हो गयी, बी. डी. ओ.  साहब ने धीरेन   को देखते ही बड़े तपाक से कहा, "अरे धीरेन  , सुबह सुबह इतनी जल्दी, सब खैरियत तो है न ?

 

"जी बी. डी. ओ.  साहब, आपकी दया से सब कुशले मंगल है, ऊ बड़े भैया ने कहा कि घर में सब को मेला घूमा लाओ, "नागिन" फिलिम देखने का उनको बहुते मन है, इसलिए हम आपकी सेवा में हाज़िर हो गए ।

 

बी. डी. ओ.  साहब बड़े दूरदर्शी थे, उन्हों ने धीरेन   के मन की बात भांप ली थी, बोले, "अरे इसमें क्या है, कितना लोग का पास चाहिए, और कौन दिन का” ?

 

"जी, ईतवार का , सिनेमा का पच्चीस और सर्कस का बीस ठो" ।

 

"अरे धीरेन   तुम तो जानते हो कि अभी पहला ही हफ्ता है, पच्चीस पास ज्यादा हो जायेगा” ।

 

"अब हम तो सब को बोल आयें हैं कि पास का इन्तेजाम हो जायेगा, उस पर बड़की भौजी ने ईतवार का दिन फिक्स किया है, आप तो जानते ही हैं कि बड़की भौजी को हम सभी माँ जैसा ही मानते हैं, और आपको भी कितना मानती हैँ वो,  अब सब बस मेरा ही इन्तेजार कर रहें होंगे कि धीरेन   पास लेकर आता ही होगा,  अब अगर पच्चीस पास का इन्तेजाम नहीं हुआ तो हम किस किस  को मना करेंगे और आपके रहते क्या मूहँ लेकर लौटेंगे, अब आप ही फैसला कर लीजिये  ।

 

धीरेन   के बोलने का अंदाज ऐसा था कि बी. डी. ओ.  साहब एकदम चुप हो गए और बोले "अच्छा ठीक है, हम विजय टाकिज केमैनजर के नाम से चिठ्ठा काट देते हैं, जाकर मिल लो, और सर्कस के लिए चिंता मत करो, मेला  जाकर तहसीलदार से मिल लेना, वह बोल देगा सर्कस कंपनी के मैनजर को ।

 

"अरे धीरेन  , इस बार तुम नौटंकी का जिक्र नहीं किये  ? पता है, गुलाबो बाई और बिमला बाई दोनों आयी  है, नौटंकी देखने का कब प्रोग्राम बना रहे हो” ?

 

"प्रोग्राम हम बनाते है न, दरोगा जी से भी बात कर लेंगे फिर आपको बताते हैं” ।

 

"अच्छा, अभी हम मेला का सब इन्तेजाम देखने जा रहें हैं, कोई दिक्कत हो तो मेला में तहसीलदार से मिल लेना, हम उसको हिदायत दे देंगे” ।

 

"जी, हम भी निकलते हैं", इतना कह कर धीरेन   प्रणाम कर घर की ओर निकल पड़ा, बहुत खुश था, चलो बड़का काम हो गया, हम तो सब को दिलासा दे चुके थे, मेरी इज्जत का तो आज बस फलूदा बनते बनते रह गया, मन ही मन धीरेन   ने बी. डी. ओ. साहब का धन्यबाद ज्ञापन किया ।

 

घर पहुंचते ही धीरेन ने सब से पहले बाबूजी  को और फिर अपनी बड़की भौजी को यह खुश खबरी दी कि “पास” का इन्तेजाम हो गया है, इतवार को मेले का प्रोग्राम पक्का, सब ने  राहत  की सांस ली, इसी “पास” के ऊपर  मेले का पूरा प्रोग्राम जो फिक्स था ।

 

और आज ईतवार का दिन आ ही गया, सुबह से सब मेले जाने की तैयारी में जुट गए, सब को बस एक फिकर सताए जा रही थी कि आज कौन सा कपड़ा पहनना है, सभी अपने सबसे अच्छे कपडे छाँट छाँट कर अलग कर रहे थे,  घर की औरतें मैचिंग  साड़ी बलाउज पसंद कराने में जुटी थी, तो कोई इसतरी कराने की फ़िक्र मेँ था, ऐसा लग रहा था कि कोई उत्सव में जाने की तयारी हो रही है ।

 

कौशल्या देवी ने महराज को दिन का  खाना  आज जल्दी बना लेने ले लिए सारी हिदायतें दे डाली, फिर धीरेन   से पूछा, "अरे धीरेन  , मेला जाने के लिए समप्नी और  टप्पर गाडी के गाडीवान को खबर कर दी है न" ? 

 

"जी बड़की भौजी, राम खेलावन और सरजुगवा दोनों को हम कल्हे बोल दिए थे, अब बस आते ही होंगे" ।

 

"फिर उन्हों ने अपने पति से पूछा "ए जी आपका क्या प्रोग्राम है" ?

 

"ऐसा करो कि तुम सभी लोग दिन में मेला के लिए निकलो, हम शाम में अपने टमटम (एक्का गाडी) पर सिनेमा के टाइम पर पहुँच जायेंगे", बाबूजी ने कहा ।  

 

"ठीक है, वैसे भी सर्कस का शो  तो हम लोग तीन  बजे देखने वाले हैं, आपको तो सर्कस में कोई दिलचस्पी है नहीं, वही ठीक  रहेगा, पर आप साढ़े पांच बजे तक जरूर से पहुँच जाईयेगा । 

 

"हम लोग यहाँ से एक बजे मेला के लिए निकले, क्यों धीरेन  " ?

 

"जी भौजी, एक बजे तक तो निकलना ही पड़ेगा, यहाँ से लगभग एक डेढ़ घंटा तो जाने में लग ही जायेगा ।

 

"कौशल्या देवी ने कहा कि ठीक है, सब को बोल दो कि दिन का खाना वाना सब जल्दी ख़तम कर ले, और सिनेमा के बाद रात का खाना मेला में ही सब लोग खा लेंगे", इतना कह कर कौशल्या देवी सारे इन्तेजाम में लग गयी ।

 

तभी बाहर सड़क पर बैंड बाजे कि धुन सुनायी पडी, सभी उत्सुकता वश बरामदे में आकर खड़े हो गए, बैंड पार्टी के साथ माइक  पर कोई  उदघोषणा  कर रहा था ............ !

 

"सुनिए सुनिए सुनिए, फारबिसगंज के निवासियों सुनिए, आपके शहर फारबिसगंज मेले में इस बार ओरिएंटल सरकस नए नए खेल लेकर आया है, ढेर सारे दिल दहलाने वाले खेल, जान की बाजी लगा कर हवा में झूलने वाले खिलाडियों का खेल, जिनके साथ जांबाज लड़कियों को हवा में तैरते हुए देख कर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे, नए नए करतब लेकर आपके अपने शहर में इन सब को लेकर पहली बार आया है ओरिएंटल सरकस, जो भी इन खेलों को देखने से चूक जायेगा वह ज़िन्दगी भर अपने को कोसता रहेगा । 

 

फारबिसगंज के निवासियों, बच्चे, बूढ़े, जवान, औरत, मर्द सब के लिए केवल एक ही मौका है, आइये भारी तादाद में पूरे परिवार के साथ बैठ कर देखिये, आपका अपना ओरिएंटल सरकस, रोजाना चार  शो, ठीक तीन, पांच, सात और नौ बजे, पहला शो ठीक तीन बजे शुरू हो जायेगा, टिकट दर, फर्स्ट क्लास डेढ़ रुपैया, सेकंड क्लास एक रुपैया और थर्ड  क्लास केवल  बारह आना, जरूर से आईये, देखना मत भूलिए, आपका अपना ओरिएंटल सरकस”  ।

 

अभी सरकस  वाला बैंड बाजा सामने से ओझल हुआ ही था कि एक और बैंड की आवाज सुनाई दी, यह बैंड बाजा  तो पहले से भी बड़ा था, सामने में "मूसा  बैंड"  का बड़ा बड़ा बैनर  लिए दो आदमी चल रहा था, ठीक उसके पीछे बड़े बड़े पोस्टर, पता चला कि फिलिम नागिन का प्रचार वाला है, बड़े जोर शोर से से माइक पर उदघोषणा कर रहा था ......................!

 

"आज से आपके मेले में आ गया, आ गया, आ गया,  पहली बार विजय टाकिज के रुपहले परदे पर, पूरे परिवार के साथ जरूर  देखिये, इस साल की सब से सुपर हीट फिलिम "नागिन", जिसके मुख्य कलाकार हैं, "प्रदीप कुमार और बैजंती माला, साथ  में हैं .............. ?

 

फिलिम नागिन का संगीत दिया है फिलिम जगत के मशहूर संगीतकार "हेमंत कुमार" ने, इस फिलिम के गाने ने रिकार्ड तोड़ सफलता हासिल की है और पिछले सभी गाने का रिकार्ड तोड़ दिया है, सुनिए इसी फिलिम के एक गाने की झलक, और फिर बज उठा "मन डोले मेरा तन डोले, ...........................................! 

 

फिलिम के बीन की जादू पर सांप भी खींचे  खींचे चले आते हैं, देखिये पहली बार सुपर हीट गाने ईस्टमेन कलर में, रोजाना तीन शो, दोपहर साढ़े तीन बजे, शाम साढ़े छः बजे और रात्रि साढ़े नव बजे, माइक पर उदघोषणा करते करते बैंड पार्टी का कारवां आगे निकल पड़ा।

 

तरह  तरह के प्रचार, "अपनी बालों की सुरक्च्छा के लिए इस्तेमाल कीजिये यह जडी बूटी वाला हिमालय  तेल, हिमालय की तराई में पाए जाने वाले गुम हो चुके बहुमूल्य जडी बूटियों से हिमालय में ही रहने वाले ऋषि मुनिओं द्वारा तैयार किया हुआ हिमालय  तेल, जिसे  हिमालय तेल कमपनी ने केवल आपके लिए एक रुपैये में लाया है", आईये, और अभी खरीदें, स्टाक सिमित है" ।

 

पूरे मेले की अवधि में पूरा शहर इसी तरह प्रचार वाले की शोर में डूबा रहता, कभी "चश्मा गोला साबुन ही इस्तेमाल करिए", तो कभी, "मजबूत दांतों के लिए लाल दन्त मंजन, बस एक चुटकी भर मंजन , और दांत मोती की तरह सफ़ेद" ।

 

“और प्रचार का कभी न ख़तम होने वाला यह सिलसिला चलता रहता, चलता रहता, चलता रहता”......!

 

 

राम खेलावन और सरजुगवा दोनों अपने अपने ड्यूटी पर पहुँच चुके थे, राम खेलावन समप्नी गाडी  जब कि सरजुगवा  टप्पर गाडी का  गाडीवान था, राम खेलावन ने अपने बैलों का बड़ा प्यारा नाम रख्खा था, वह उन्हें "हीरा और मोती" कह कर पुकारता था, सरजुगवा भी राम खेलावन से कम नहीं था, वह भी देखा देखी अपने बैलों का नाम  "रामा और किशना" रख्खा था, दोनों अपने अपने गाडी को चमकाने में लग गए, बैलों को बड़े प्यार से नहलाया, उनके गले में घंटी बाँधी, फिर गाडी को धो धा कर साफ़ सुथरा किया, समप्नी और  टप्पर दोनों गाडी मेला जाने के लिए तैयार खड़े थे, धीरेन   ने एक बैलगाड़ी का भी अलग से प्रबंध किया था, घर के  नौकर चाकर के बैठने के लिए ।  

 

ठीक एक बजे सभी मेला जाने के लिए बहार बरामदे में आ  गए, समप्नी और  टप्पर गाडी में सभी मिल जुल कर लद गए,  समप्नी  गाडी की शान  निराली  थी,  उन दिनों समप्नी गाडी रखना एक प्रेस्टीज हुआ करता था, बैल जिस गाडी को खींचता था, उस गाडी के ऊपर चारों कोने पर सुन्दर लकड़ी के  गोलनुमा  खम्बे लगा दिए जाते थे, उन खम्बों पर लकड़ी की तख्ती का ही फ्रेम बनाकर छत जड़ दिया जाता था, अन्दर से खूब अच्छे मोटे रंगीन कपडे का परदा  भी लगाया जाता था, इन परदों को गिरा देने से प्राइवेसी  हो जाती थी, परदों में छोटे छोटे झरोखों जैसी खिड़की का भी प्रबंध किया जाता था,

 

वहीँ  टप्पर गाडी का डिजाईन अलग किस्म का था, गाडी के ऊपर बांस और टट्टी   का अर्ध गोलाकार छतनुमा बनाकर उसे रंगीन तारपोलिन से ढँक दिया जाता था जो छत का काम करता था, टप्पर गाडी आमने सामने से खुला रहता था, किसी किसी में परदा डाल कर उसे भी बंद करने का प्रबंध था ।

 

 समप्नी गाडी,  टप्पर गाडी से सुपेरिअर माना जाता था, राम खेलावन को इस बात का गुमान था कि वह समप्नी गाडी का गाडीवान था, इसलिए वह अपने को सरजुगवा से थोडा सिनिअर समझता  था, सरजुगवा इस बात को समझता था, इसलिए वह राम खेलावन को "बड़के भैया" कह कर संबोधित करता था, राम खेलावन को जब वह बड़का भैया कह के पुकारता तो उसे अपने सिनिअर होने का गर्व होता ।

 

राम   खेलावन की समप्नी गाडी सबसे आगे निकली,  ठीक उसके पीछे सरजुगवा की टप्पर गाडी और उसके पीछे पीछे हरिया की बैल गाडी, हरिया नाम था उस बैल गाडी के गाडीवान का ।

 

कौशल्या  देवी, धीरेन, विरेन, उनकी दोनों देवरानियाँ और पोते पोती सब समप्नी गाडी में बैठे, बांकी लोग टप्पर गाडी में, जो बचे खुचे और नौकर चाकर थे, हरिया की बैल गाडी में बैठ गए, इस तरह ये  कारवां  मेला की ओर प्रस्थान कर गया ।

 

घर से  मेले तक  का सफ़र लगभग डेढ़ घंटे का था, मेला कोई एक डेढ़ कोस (चार - साढ़े चार किलो मीटर)  की दूरी पर लगा था, मेला के लिय वह स्थान निर्धारित था, हर साल मेला वहीँ लगता था, मेले के लिये डाक बोली जाती थी, सबसे ज्यादा डाक बोलने वाले को पूरे मेला का छेत्र मेले अवधि के लिया लीज पर दे दिया जाता था, डाक से मिली रकम को माल खाने (ट्रेजरी) में जमा कर दिया जाता था, जिसे मेले का बंदोबस्त मिलता वह मेले की सरजमीन को मेले में आने वाले सिनेमा घर, सर्कस, दूकान, होटल वगैरह के अनुसार प्लाटिंग कर के डाक के द्वारा एलाट कर देता था जिसमें उसे प्लाट के हिसाब से पैसा मिलता था, वही उसकी आमदनी हुआ करती थी ।   

 

राम खेलावन बड़ी सावधानी के साथ अपनी सम्पनी गाडी को चला रहा था, बड़ा बातूनी था राम खेलावन, चुप तो  वह बैठिये नय सकता था, अभी थोड़ी दूर ही वह निकला होगा कि वह बोल उठा ,"जानत हैं मलकिनी, ई जो हीरवा और मोतिया हैं न, वो दोनों अपन अपन किलवा  को पहचानता है, हीरवा को अगर मोतिया के जगह जोत दो तब व चलबे नय करेगा, वही हाल मोतिया का भी है, दोनों अपना अपना जगह पक्का कर के बैठ गया है, हीरवा का ई बायां और मोतिया का दायाँ फिक्स है, हम जब भी इनको जोतते हैं तो इस बात का पक्का ध्यान हमको रखना पड़ता है, अभी देखिये, कितनी मस्ती में दोनों ताल मेल ताल मिला कर चल रहे हैं, ऐसी जुगल बंदी कि बड़का बड़का सहनाई वादक बिसिमैल्ला खान और तबला बजाने वाले दांतों तले उंगली ना दवा ले तो मलकिनी आप हमरा नाम बदल डालियों, उधर सरजुगवा भी कुछ इसी तरह की हांक रहा था ।

 

कौशल्या देवी और सभी को राम खेलावन की बातों में बड़ा रस मिल रहा था, तभी कौशल्या देवी ने राम खेलावन से पूछा, "हम तुमरे गाना की बहुते तारीफ़ सुने हैं, कौनों लोक गीत सुना दो सबको” ।

 

"अब आपके सामने हम क्या गायें, हमको शरम लगती है, आपके सामने तो आज ही हम जुबान खोले हैं" ।

 

"अरे शरम का क्या बात है, सब तो घर के ही लोग हैं. इनसे कैसी शरम" ।

 

"ठीक है मलकिनी, आपका हुकुम हम कैसे टाल सकते हैं, अब हमको जो थोडा बहुत गीत आता है वही हम आपको सुनाते हैं" ।

 

इतना कह कर राम खेलावन "लवकुश दीक्षित का लिखा अवधी भाषा का प्रसिद्ध लोक  गीत गाता है जिसमें भाभी द्वारा देवर की बदमासियों ,शरारतों का  बड़ा प्यारा वर्णन है, इस गीत में भाभी बताती है कि देवर पुत्र के समान होता है, और देवर से कहती है कि अपनी शैतानियां समाप्त कर दे नहीं तो मैं देवरानी को बुलवा लूंगी ताकि तुम्हारी विरह की आग ठंडी हो जाएगी | भाभी कहती है कि जैसे भाई के साथ सावन मनाया जाता है वैसे ही मैं तुम संग होली खेलूंगी", ।

 

और फिर राम खेलावन ठेठ  देहाती स्ट्याल में जोर जोर से सुरु हो जाता है, सभी बड़े तन्मयता के साथ  सभी  उसके गाये गीत को सुनते हैं और बीच बीच में एक दूसरे  से उसका अर्थ समझने की कोशश करते है !     

 

 “निहुरे निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा, टुकुरु टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा,

“निहुरे निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा, टुकुरु - टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा,

 

भारी अंगनवा न बइठे ते सपरै,  निहुरौं तो बइरी अंचरवा न संभरै,

लहरि-लहरि लहरै -उभारै पवनवा, टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।

 

छैला देवरु आधी रतिया ते जागै, चढ़ि बइठै देहरी शरम नहिं लागै,

गुजुरु-गुजुरु नठिया नचावै नयनवा, टुकुरु टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा ।

 

गंगा नहाय गयीं सासु ननदिया, घर मा न कोई मोरे-सैंया विदेसवा,

धुकुरु-पुकुरु करेजवा मां कांपै परनवा, टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा ।

 

रतिया बितायउं बन्द कइ-कइ कोठरिया,  उमस भरी कइसे बीतै दोपहरिया, निचुरि-निचुरि निचुरै बदनवा पसीनवा, टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।

 

लहुरे देवरवा परऊं तोरि पइयां, मोरे तनमन मां बसै तोरे भइया,

संवरि-संवरि टूटै न मोरे सपनवां, टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।

 

माना कि मइके मां मोरि देवरनिया, बहुतै जड़ावै बिरह की अगिनिया,

आवैं तोरे भइया मंगइहौं गवनवां, टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा।

 

तोरे संग देउरा मनइहौं फगुनवा,  जइसै वीरनवा मनावैं सवनवां,

भौजी तोरी मइया तू मोरो ललनवा, टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा ।

 

राम खेलावन के गीत सुनकर सब मन्त्र मुग्ध हो जाते हैं, कौशल्या देवी कहती है  कि कितना बढ़िया चित्रण देवर भाभी के सम्बंद्भों का है इस गाने में । 

 

धीरेन ने बड़की भौजी से कहा, “अरे भौजी लोग अपने देवर की बात नय समझंगे  तो और कौन समझेगा, उसने अपनी पत्नी की ओर देखते हुए कहा, क्यों सुभद्रा है कि नहीं" ? 

 

"क्यों लल्ला जी, ई क्या कह रहे हैं, सुनते हैं न, हम भी तो आपके मन की बात जान लेते हैं, सुभद्रा ने चुटकी लेते हुए अपने देवर हिरेन से कहा, वह हिरेन को लल्ला ही कह कर पूकारती थी । 

 

हिरेन की पत्नी बस मुस्कुरा कर रह गयी, इन हंसी मजाकों के बीच एक  घंटा का सफ़र कब कट गया किसी को पता भी नहीं चला, सच अच्छा समय बस देखते देखते बीत जाता है ।

 

तभी राम खेलावन ने गाडी रोक दी, सभी ने लगभग एक स्वर में पूछा, "क्या हुआ राम खेलावन" ?

 

"जी मलकिनी, ई हमरा घर आ गया, हमरा बड़का भाग्य कि आज आप सब लोग एक साथ हमरा घर में पधारें है, मलकिनी, हमरा बहुते दिन से मन था कि एक बार आप हमरे भी अंगना में अपना पावँ रख देते, हमारा घर पवित्र हो जाता ।  

 

अब यह प्रोग्राम तो आज के एजेंडा  में था नहीं, उस पर सब को लग रहा था कि मेले के लिए विलम्ब हो जायेगा, पर राम खेलावन के आग्रह को भी तो ठुकराया नहीं जा सकता था, सब असमंजस की स्थिति में थे तभी कौशल्या देवी ने कहा, "हाँ हाँ राम खेलावन, हमें भी अच्छा लगेगा, अरे सब लोग नीचे उतरो" ।

 

राम खेलावन  पहले ही से यह  प्रोग्राम बना कर  बैठा  था, वह पास के गाँव की पराईमरी स्कूल से दो चार बेंच और एक दो टेबुल ले आया था, सभी नीचे उतरे, देखा एक मिटटी का घर, मिटटी की दीवालें, और उसके ऊपर खपरैल टीन का छत, दो कमरे, एक सामने की ओर बरामदा और एक पीछे अंगने की ओर, फर्श मिटटी की ही थी, पर बिल्कुल चिकनी दीख रही थी, ऐसा लग रहा था की मानों अभी अभी इसे चिकनी मिट्टी से पोंछा गया हो, घर के ठीक सामने एक चांपा कल गड़ा हुआ था, दो लालटेन बरामदे में लटके हुए थे, जिसके  शीशे टूटे हुए थे, एक दो टूटी फूटी कुर्सी और एक पूराना हो चूका बेंच भी रख्खा  हुआ  था, चारों ओर हरियाली ही हरियाली   थी, राम खेलावन ने वहां की स्थानीय पेड़ पौधे, झाड - फूल  से घर को सजा रख्खा था, इस नीरे देहात में मिट्टी का घर इतना साफ़ सुथरा और हरा भरा हो सकता है, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी, संभवतः राम खेलावन का यह घर सही मायने में भारत वर्ष के ग्रामीण इलाकों की छवि दर्शा रहा था ।

 

सभी नीचे उतरे, राम खेलावन की मेहरारू सरस्वती देवी जिसे राम खेलावन प्यार से "सरसतिया" कह कर पुकारता था, दौड़ी - दौड़ी वहां आयी, एक हाँथ से वह अपने सर पर रख्खे साडी के पल्लू को संभाल रही थी,   आते ही उसने सब के पावँ छू छू कर प्रणाम किया, राम खेलावन के दोनों बेटे और एक बेटी भी तब तक वहां पहुँच चुके थे, उन्हों ने भी सभी के पावँ छुए ।

 

राम खेलावन ने कहा, "मलकिनी, आप लोगन तनिक बैठ कर सुस्ताइये, हम अभी मिशिर  जी के यहाँ से चाय ले आते हैं, अरे सरसतिया,  गिलास लोटा मांज के ताजा पानी चांपा कल से भर कर सब को पिलाओ तब  तक हम चाय लेकर आ जायेंगे” ।

 

"अरे राम खेलावन, ये मिशिर जी कौन हैं ? और उनके यहाँ से चाय ले के पिलाओगे ? क्यों ?

 

"जी मलकिनी, ई मिशिर जी यहाँ पास के पराईमरी इस्कूल के मास्टर हैं, यहीं बगले में रहते हैं, अब हमरे घर का चाय  हम आपको कैसे पिला सकते हैं" ।

 

कौशल्या देवी को सारी बात समझ में आ चुकी थी, दर असल राम खेलावन निचली जाति से था और उन दिनों बड़े जाति वाले निचली जाति के हाँथ का पानी तक नहीं पीते थे, पर कौशल्या देवी इन सबसे बिलकुल अलग किस्म की महिला थी, उन्हों ने कड़क आवाज में राम खेलावन को लगभग डांटते हुए कहा, "ई मिशिर जी उसीर जी के यहाँ से लाने  का कोई जरूरत नय है,  सरसतिया चाय बनाएगी, उसी  के हाँथ का चाय हम सभी पीयेंगे, क्यों धीरेन” ?

 

राम खेलावन ने बड़े कातर  भाव से कौशल्या देवी की ओर देखते हुए सरसतिया से कहा,"अरे खड़ी खड़ी  अब हमरा मूहँ क्या देख रही है, जल्दी से चाय चूल्हा पर चढ़ा दो, और जितना जल्दी हो सके चाय बना कर सबको पिलाओ, राम खेलावन  अपने गमछी की कोर से अपनी नम आँखों को पोंछने लगा, सभी ने गौर किया की राम खेलावन गमछी से आँख पोंछने के बहाने अपनी नम आँखों को छुपा रहा है, इधर मन ही मन राम खेलावन ने सोचा, इतना मान सममान तो किसी ने भी पहले नहीं दिया, सब दिन ई ऊँच परिवार के लोगन सब नीच दृष्टी  ही से हमको देखिन हैं और आज इतना मान,  सच्चे जितना मलकिनी के बारे में सुनते थे, उससे भी ज्यादा अच्छी निकली, जरा भी भेद भाव नहीं, ऐसन मालिक मलकिनी बड़े भाग्य से किसी को मिलता है, अब तो हम क्या, हम्मर सब लड़कन भी अपनी ज़िन्दगी यही ड्योढ़ी पर गुजार दें तो भी ई रीन नय चूका पाएंगे, राम खेलावन एक दम से भावुक हो उठा था । 

 

सरसतिया मिटटी के चूल्हे पर लकड़ी जलाकर जल्दी से चाय बना कर मिटटी के ही कुल्हड़ में ले आयी, साथ में सूखा भुना हुआ चना, चिउड़ा और कुछ बिस्किट, सभी ने सरसतिया के चुस्ती  की मन ही मन तारीफ की । चाय एक दम कड़क बनी थी, धीरेन कह उठा "मजा आ गया राम खेलावन,  सारी थकन उतर गयी, अब जल्दी से गाडी जोतो और चलने की तैयारी करो ।

 

कौशल्य देवी ने राम खेलावन से कहा, "अरे राम खेलावन, तुम बहुते भाग्यवान हो कि तुमको  सरसतिया जैसी मेहरारू मिली, देखा इतना आदमी का चाय झटपट बना कर ले आयी, फिर उन्हों ने धीरेन से पच्चीस रुपैये लिए और सरसतिया के हांथों में देते हुए बोली ;

 

 "सरसतिया, ई तुम रख लो, जाड़ा आ रहा है, बाल बच्चन का गरम कपड़ा सिलवा देना, और अपने लिए भी एक साडी मेला में खरीद लेना जरूर से, राम खेलावन को ई पैसा मत देना, पता नहीं पी पा के सब उड़ा देगा" ।

 

“नहीं मलकिनी, हमको ई सब आदत नय है, सरसतिया तुम मलकिनी को बताओ, नहीं तो ई हमर बात का विशवास नय करेंगी" । सरसतिया ने लजाते हुए एक बार फिर सभी के पाँव छुए और लड़कन सब को भी ऐसा ही करने का इशारा किया ।

"अरे राम खेलावन, लड़कन सब को भी मेला घुमाने ले चलो, फिर सब लड़कन की ओर देखते हुए बोली, फटाफट जल्दी से अच्छा वाला पैंट कमीज पहिन कर बैल गाडी में बैठ जाओ । हम सब मेला देखने जायेंगे ।

 

बैल गाड़ियों का यह कारवां एक बार फिर से मेला की ओर प्रस्थान कर गया ।

 

 मेला पहुंचते ही धीरेन ने कहा, "अरे राम खेलावन, सब गाडी मेला के थाना के बाहर लगा दो, फिर कौशल्या देवी से कहा कि "बड़की भौजी, हम बस अभी तहसीलदार साहब से मिल के आते हैं'

 

धीरेन जैसे ही वहां पहुंचा तो सामने तहसीलदार साहब को सामने  पाया, लगा जैसे तहसीलदार साहब उसी का रास्ता देख रहे थे, बड़े तपाक से मिले और बोले कि "आपका ही राह देख रहा था, आने में कोई परेशानी तो नहीं हुयी, हम अभी चाय भिजवाते हैं"  ।

 

"अरे नहीं तहसीलदार साहब, हम अभी - अभी राम खेलावन के यहाँ चाय पीकर चले हैं",

 

तहसीलदार साहब यह सुनकर चौंकें, पर उन्हों ने कुछ भी कहना उचित  नहीं समझा, बोले, "हम आपके साथ एक सिपाही कर देते हैं, सरकस के मैनजर को हम बोल कर सारा इन्तेजाम करावा दिए हैं, वह आप सब के बैठने के लिए कुर्सी का प्रबंध किया है, कोई दिक्कत नहीं होगी ।

 

"आपके रहते भला कैसी दिक्कत ?  हम तो आपके आभारी हैं"

 

"अरे यह आप कैसी बात कर रहर हैं, बी. डी. ओ. साहब से इसका जिक्र भी मत कीजियेगा नहीं तो हमारी नौकरी बस गयी समझो"

 

धीरेन   मुस्कुरा कर रह गया, अच्छा तहसीलदार साहब, अब हमचलते है, सब को जरा मेला घूमा दें ।

 

"बड़की भौजी, सब इन्तेजाम हो गया है, चलिए जब तक सर्कस का टाइम होता है, सब को मेला घूमा लायें और लड़कन सब को झूला वगैरह पर झूला दें, फिर घर की औरतों से बोले कि तुम लोग को जो गरम कपड़ा खरीदना है, अभिये खरीद लो, फिर टाइम नहीं मिलेगा ।

 

"नातिन, तुम  और  जतिन, सब लड़कन को  झुला, चकरी का खेल दिखा लाओ और ठीक सरकस शुरू होने के टाइम के पहले पहुँच कर वहाँ हमलोगों का इन्तेजार करना, कोई लड़कन को इधर उधर मत जाने देना ।"और राम खेलावन, तुम लोग दूसरा दिन आकर मेला घूम लेना, हम तहसीलदार साहब से बोल दिए हैं कि सरकस सिनेमा का पास बनवान देंगे" ।

 

"जी मालिक", इतना कह कर राम खेलावन अपने बैलों को खल्ली पानी और घास चरने को दिया,  बांकी  गाड़ीवानों ने भी ऐसा ही किया । 

 

"चलिए भौजी, हम लोग गरम कपड़ा देख लेते हैं और आपको थोडा मेला घुमा देते हैं", फिर अपनी पत्नी, बिरेन, हिरेन, उनकी पत्नियाँ, और अपने भतीजों की पत्नियों सब को साथ लेकर चल पड़ा ।

 

मेले का इन्तेजाम और दूकानों का एलाटमेंट बड़े सलीके से किया जाता था, सभी होटलें एक कतार  से लगी रहती, गरम कपड़ों की दुकानें जो पंजाब, काश्मीर, दार्जिलिंग और विभिन्न  जगहों से आती थी, उन सब को अलग से एक कतार  में जगह दी जाती थी, कहने का मतलब कि एक प्रकार की दुकानों को एक कतार से जगह एलाट किया जाता था, ऐसा प्रबंध करने से सब को खरीदारी करने में बड़ी सहूलियत होती थी, गरम रेडीमेड कपडे बस इसी मेले मेँ मिलते थे, क्योंकि शहर में इस प्रकार की कोई दूकान   नहीं थी, बहुत मांग रहती थी इनकी, कम्बल, कार्डिगन, स्वेअटर वगैरह सब उपलब्ध था, यही वजह थी कि परिवार के सभी सदस्य इस दूकान   की ओर जा रहे थे ।

 

धीरेन   रास्ते में सब को मेले की जानकारी साथ साथ देता जा रहा था, "भौजी ई रहा अपना लालमिया का दूकान   और इसके ठीक सामने बेदानी कंपनी, ई दोनों में छत्तीस का आंकड़ा  है, हर साल बेदनी कंपनी लालमिया वाली जगह में अपना दूकान   लगाना चाहता है, पर मेले के बंदोबस्त वाले जगह बदलने से इनकार कर देते हैं, बंदोबस्त करने वाले का कहना रहता है कि जो बरसों से जिस जगह पर अपना दूकान   लगा रहा है, उसको वही जगह एलाट होगा, हर साल ई बेदानी कंपनी वाला झंजट जरूर पैदा करता है ।

 

धीरेन ने इतनी बातें विस्तार से इसलिए बतलाई कि ये कपडे के दोनों दुकानें शहर के सबसे बड़ी दूकान   थे, हर साल मेले में अपना स्टाल लगाते थे, और लाखों की कमाई कर जाते,   इसी बीच गरम कपड़ों वाली दुकानें आ गयी, सभी ने जम कर खरीदारी  की ।

 

 धीरेन ने कहा " सरकस का  टाइम हो रहा है, चलिए भौजी, नतिन, जतिन सब इन्तेजार कर रहा होगा" ।

 

"हाँ हाँ चलो", अरे सब दुलहिन और कनिया, अब सब चलो, सरकस का  टाइम हो रहा है, बहुते खरीदारी  हो गया" ।

 

सभी सरकस की ओर प्रस्थान कर गए, रास्ते में औरतों ने फिर चूड़ी की दूकान   पर रूक कर चूड़ियाँ  और बिंदी खरीदी, साल भर की खरीदारी जो ठहरी ।

 

सरकस के बाहर एक बार सभी फिर से मिले, बच्चों ने बड़ेआनंद लेकर झूले, चकरी इत्यादि खेलों का पूरा व्योरा दिया, हवा मिठाई का तो विशेष रूप से जिक्र किया, जानते हैं , हाथों को फैलाकर बोला, "इतना बड़ा बड़ा हवाई मिठाई, मूहँ में रखते  ही गायब", खूब चटखारे ले ले कर कहानी सुनायी । 

 

सरकस का मैनजर   तब तक वहां पहुँच चुका था, आते ही बोला, "आइये  सर अन्दर चलें, बैठने का सारा प्रबंध हमने पहले से कर के रख्खा है, शो अब शुरू होने ही वाला है" । 

 

सरकस के अन्दर सब ने जैसे ही प्रवेश किया कि सर्कस का बिगुल जोरों से बज उठा, यह शो शुरू होने का सिगनल  था, फिर एक एक कर सारे  खिलाड़ी  ने कतार से मच पर आ कर  करतल  ध्वनि के बीच अपना अपना  अभिवादन प्रकट किया ।

 

सरकस शुरू हो चूका था, तरह तरह के खेल करतब दिखाए जा रहे थे, घूड़ सवारी, हाथी के द्वारा फूटबाल का खेला जाना, विभिन्न प्रकार के साईकिल, एक पहिया साईकिल, तोप से आदमी का निकलना, और ना जाने कितने खेल ।

 

तभी एक उदघोषणा हुयी, "अब दिल थाम के बैठिये, अपनी जान की बाजी लगाकर आ रहें है, मौत के कुएं में मोटर साईकिल चलाने, जरा सी चुक और मौत, इसलिए इसका नाम है "मौत का कुआँ" ।

 

स्टेज मौत के कुँए के लिए फटाफट तैयार किया गया, नेपथ्य से रोंगटे खड़े करने वाली संगीत की धुनें, सब सांस रोक कर खेल देखने में तन्मय थे, मोटर साईकिल की गड़ गड़ आवाज से स्टेडियम गूँज रहा था, एक एक साथ दो दो मोटर साईकिल, सच यह वास्तव में मौत का कुआँ ही था,  जैसे इस “मौत का कुआँ” खेल का तमाशा  ख़तम हुआ, पूरा सर्कस तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा, बीच बीच में सरकस के हरफनमौला जोकर अपनी जोकरई से सबको हँसा   हँसा  के लोट पोट करता रहा, सरकस की लड़कियाँ भी किसी से कम नहीं थी, उन्हों ने भी, तरह तरह के खेल करतब दिखाए ।

 

तभी एक और उदघोषणा हुयी, अब आज के शो का अंतिम पड़ाव, हैरतगंज खेल और जांबाज खिलाडियों का दिल दहलानेवाला हवाई खेल, दिल के थाम के रखिये, और सभी से विनती है कि इस खेल के दौरान शांति बनायें रख्खे, एक जरा सी चुक और भारी हादसा, भाईओं, बहिनों और माताओं, ओरिएंटल सरकस की ख़ास पेशकस, एशिया का फेमस खेल, "ट्रापिज़" ।

 

इस खेल में रसियन खिलाड़ी जांबाज लडके और लड़कियां  भी भाग  ले रहें हैं, दिल थाम के बैठिये, आपके सामने अब बस कुछ ही छणोँ में पेश किया जाता है, एशिया का मसहूर खेल, "ट्रापिज़", तब तक हमारे मशहूर हरफन मौला जोकर  “फंटूश श्री  ४२०” के करतब का आनंद उठाईये ।

 

इधर श्रीमान ४२० फंटूश अपना तमाशा दिखला ही रहे थे कि  उदघोषणा  हुई, "दिल थाम के बैठिये और इस सरकस के सबसे मशहूर खेल "ट्रापिज़" का लुत्फ़ उठाईये”, धीमे धीमे रसियन संगीत की धुनों के बीच "ट्रापिज़" शुरू हो चूका था,   हवा में  तैरते हुए,  कलाबाजियां खाते हुए, एक झूले से  दूसरे झूले की ओर, लड़कें और लड़कियों ने कमाल के खेल का प्रदर्शन किया, सब मन्त्र मुग्ध हो उठें एवं करतल ध्वनि के साथ खिलाडियों का अभिवादन किया, एक बार पुनः सर्कस के सभी खिलाडी अंत में दर्शकों का  अभिवादन करने हेतु मंच पर इकठ्ठे हुए, जोरों की सिटी  बजी जो खेल समाप्त होने का संकेत था, धीरे धीरे सभी दर्शक बाहर की ओर प्रस्थान करने लगे।

अभी सिनेमा का शो शुरू होने में लगभग एक डेढ़ घंटे का समय बांकी था,घर की महिलाओं को चाय पीने की तलब हो रही थी, इन्हों ने अपनी इच्छा धीरेन   से जताई ।

 

धीरेन ने कहा, "मैं भी चाय के ही बारे में सोच रहा था, चलो आज मेला के सबसे स्पेसल चाय की दूकान   पर चलते हैं, यह दूकान   बनारस से आया है, सुनते हैं कि यह ‘मलाई मार के चाय’ पिलाता है" ।

 

"मलाई मार के चाय" ? सभी ने बड़ा आश्चर्य प्रकट किया, पर सब की "मलाई मार के चाय" पीने की इच्छा प्रबल हो उठी, सब ने एक स्वर में कहा, "हाँ हाँ, पहले रेस्टुरेँट में चलकर  कुछ  पेट पूजा कर ली जाय, फिर ये " मलाई मार के वाली चाय" पीई जाय ।

 

तभी रेस्टुरेँट और होटल वाली गली आ गयी और एक जोरदार आवाज ने सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, “आईये आईये पधारिये, यह है दिल्ली के चांदनी चौक का फेमस रेस्तुरांत, आपका  अपना  "पंजाबी रेस्तुरांत",  हरदिल  लाजवाब  स्नैक्स, दिल्ली का फेमस कबाब, चांप, कटलेट,  सब  कुछ  यहाँ  उचित दामों में उपलब्ध है, एक बार आजमाइए, फिर बार बार खाने  का मन नहीं किया तो पैसा वापस,  इस बात की गारंटी दी जाती है, आईये आईये पधारिये” ।

 

उस ज़माने में रेस्टुरेँट में तरह तरह के स्नैक्स, जैसे सिंघाड़ा (समोसा), आलू चाँप, वेज कटलेट, वेजचाँप, नांन भेज कटलेट, नांन भेज चाँप  सर्व किया जाता था, जब कि होटल में केवल नाश्ता, लंच और डिनर सर्व किया जाता था । सभी ने "पंजाबी  रेस्तुरांत",  में जाना  तय किया और रेस्टुरेँट  मेँ प्रवेश किया, अपने अपने पसंद के स्नैक्स खाए । मजा आ गया, सब ने एक स्वर में कहा, क्या कटलेट था ? तो किसी ने वेज चाँप की तारीफ की, कोई सिंघाड़ा से ही खुश था, सब बड़े प्रसन्न दीख रहे थे ।

 

यह रहा बनारसी चाय वाले की दूकान  , धीरेन   ने चाय वाले दूकान   के मालिक से कहा कि सब के लिए स्पेसल  "मलाई मार के वाली चाय" पिलाईये” ।

 

जी, बस थोड़ी देर इन्तेजार करना पड़ेगा साहब, भीड़ बहुत है, आपके लिए तो स्पेसल तैयार कराता हूँ, तब तक यहाँ बेंच पर माता जी, और बहनजी को बैठने के लिए कहिये” । 

 

थोड़ी ही देर में वह   स्पेसल "मलाई मार के वाली चाय" आ चुकी थी, वाह ! ऐसी चाय तो हमनें अपनी ज़िन्दगी में कभी भी नहीं पी, सीख लो सुभद्रा, घर मेँ बनाना होगा ? धीरेन  ने अपनी पत्नी से कहा । वास्तव  में ऐसी चाय केवल मेले में आने वाले दर्शकों को प्रभावित करने के लिए बनाये जाते थे ।

 

"चलिए  भौजी अब हम आपको बनारसी पान का स्वाद भी चखा ही देते हैं, आप भी क्या याद करियेगा ? खाने के बाद आपके मूहँ से "वाह धीरेन "नहीं निकला तो मैं अपना नाम बदल डालूँगा” ।

 

सभी बनारसी पान वाले की दूकान  पर पहुंचे और स्पेसल बनारसी पान लिया, "पान का स्वाद चखते ही कौशल्या देवी ने कहा, "वाह धीरेन  , वाह वाह", "तुमने तो सच्चे कहा था, अब ई पान के बाद यहाँ का  कलकतिया पान खाने का मन भी नहीं करेगा, अब तो  हम रात का खाना खाने के बाद फिर से ई पान खाने के बाद ही घर जायेंगे", कौशल्या देवी ने पान वाले  धन्यवाद ज्ञापन किया ।

 

"तो इसमें कौन बड़का बात है ? खाना खाने के बाद पान खा कर ही घर रवाना के लिए रवाना होंगे, अभी बड़के भैया के लिए दो पान हम बंधवा लेते हैं, खुश हो जायेंगे ई पान खा के” ।

 

 सिनेमा के शो का टाइम हो चूका था, बनारसी पान मूहँ में दबाये सब विजय टाकिज पहुंचे, बाबूजी पहले से ही वहां एक कुर्सी  पर विराजमान थे, जैसे ही उन्हों ने सभी  को देखा तो कह बैठे, “कहाँ लगा दी इतनी देर, हम यहाँ पर बैठे बैठे कब से इन्तेजार कर रहें हैं” ;

 

धीरेन ने बड़के भैया का मूड शांत करने के लिए बनारसी पान का बीड़ा  निकाला और देते हुए कहा, "ई लीजिये, आप के लिए बनवाने में देर हुई, जरा खा कर देखिये, ऐसा पान ज़िन्दगी में न कभी नहीं खाया होगा और न खाइएगा, ई कलकतिया पान खा खा के आपके मूहँ का जायका ख़राब हो गया है" ।

 

बाबूजी,  ने देखा कि सबका मूहँ पान से फूला हुआ है और ई धिरेनवा हमको बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहा है, पर वे केवल मुसकुरा के रह गए, उन्हों ने पान का बीड़ा मूहँ में रख्खा, मूहँ में रखते  ही उसकी खुशबू  से बाबूजी गदगद हो गए, कहा, सही में, क्या पान है !

 

कहा, “अरे धीरेन सिनेमा के बाद याद से आठ दस बीड़ा यही पान का  बंधवा के रख लेना, भूलियो मत” ।

 

विजय टाकिज का मैनेजर बंगाली बाबु तब तक वहां पहुँच चुके  थे, आते ही उन्हों ने  कहा, "चलिए चलिए, शो का टाइम हो गया, सब के लिए वी. आई. पी. क्लास में बैठने का प्रबंध है, धीरेन बाबु, घर की महिलाओं को भी इसी में बैठा लीजिये, वो जनाना क्लास में तो मारा मारी है ।

 

सभी को बंगाली बाबु का यह अर्रेंजमेंट  पसंद आया, विशेष कर औरतों को, नहीं तो जनाना क्लास में तो डाइलोग भी ठीक से सुनाई नहीं पड़ता है, सभी ने बारी बारी से  सिनेमा हाल में प्रवेश किया ।

 

मेले के सिनेमा हाल का क्या कहना था, टेम्पररी अर्रेंजमेंट का अदभुत नमूना था,  पूरे स्ट्रकचर में बांस और लकड़ी के खम्बो का उपयोग किया गया  था,  हाल  कम से कम एक सौ फीट लम्बा और चौड़ाई तीस फीट तो जरूरे रहा होगा ।

 

स्ट्रकचर के ऊपर बांस की ही टट्टी लगाकर तिरपाल बिछा दिया गया था जो छत का काम करता था, तीन  तरफ से साइड में मोटे कपडे डालकर  स्ट्रकचर  को हालनुमा शक्ल दे दिया जाता था, सिनेमा घर के कैम्पस के  एक कोने में  जेनेरेटर रूम हुआ करता था जहाँ जेनेरेटर से बिजली पैदा की जाती थी, इसी बिजली से प्रोजेक्टर को चलाया जाता था ।

 

 हाल के सबसे शुरू में प्रोजेक्टर रूम हुआ करता था, दो दो प्रोजेक्टर हुआ करते थे, इन प्रोजेक्टरों में कार्बन जलाकर तेज प्रकाश पैदा किया जाता था, इन प्रकाश की किरणें प्रोजेक्टर में लगी फ़िल्म के ऊपर पड़ती थी जिसे हाल के आखिर (एंड) में टंगे पैंतीस एम् एम् के परदे पर फोकस किया जाता था, और इस तरह फ़िल्म का प्रदर्शन हो पाता था । 

 

 प्रोजेक्टर रूम के बाद सबसे पहला "जनाना (महिलाएं) क्लास", जिसमें बैठने के लिए बेंच की व्यवस्था थी, जनाना क्लास के बाद "वी. आई. पी. क्लास" और तब फर्स्ट, सेकंड और थर्ड  क्लास हुआ करता था, फर्स्ट क्लास में कुर्सियां और सेकंड क्लास में बेंचों की व्यवस्था थी बैठने के लिए, जब कि थर्ड क्लास में पुआल बिछा दी जाती थी बैठने के लिए ।

 

 सिनेमा  कैम्पस के एक दूसरे कोने में टिकिट घर हुआ करता था, ईटों को कच्ची मिट्टी से जोड़कर उसके ऊपर टीन का छत देकर ये टिकिट घर बनाया जाता था जिसमें तीन अलग अलग खिड़कियाँ फर्स्ट,  सेकंड और थर्ड  क्लास के लिए हुआ करती थी, महिलाओँ के लिए अलग से टिकिट घर बनाया  जाता था ।

 

हाथ  भर घुसने के लिए खिड़कियों में सुराख छोडी जाती थी, शौचालय का कोई प्रबंध नहीं था, केवल महिलाओं के लिए बांस की ही टटियाँ बना कर घेर दी जाती थी और एक जमादारिन को वहां पहरा देने बैठा दिया जाता था ।

 

चूंकि ये सिनेमा घर मेले में केवल एक महीने के लिए शो दिखाने आते थे इसलिए इन पर ज्यादा खर्च करना सिनेमा घर के मालिकों के लिए मुनासिब नहीं  था,  मेला ख़तम होने के बाद  पूरे शरद ऋतु में जिले में लगने वाले प्रायः सभी मेले में यही स्ट्रक्चर उखाड़ कर  लगाया करते थे,  कम से कम खर्च में पूरा स्ट्रक्चर ये तैयार करने में ये माहिर थे, आखिर यह उनका बिजनेस जो  था ।

 

टिकिट की बिक्री जोरों पर थी, या यूँ कहें तो मारा मरी चल रही थी, आज ईतवार होने के कारण बगल के देश नेपाल के शहर विराटनगर और आस पास के इलाके से बहुत लोग मेला देखने आये हुए थे ।

 

कहने के लिए क्यू था, सेकंड और थर्ड  क्लास की खिड़कियों पर का सीन बस देखने लायक था, एक के ऊपर एक आदमी चढ़ कर सबसे पहिले टिकिट ले लेना चाहता था, वैसे सबको पता था कि टिकिटवा तो मिल ही जायेगा पर पहले लेने की होड़ में यह सब हो रहा था, सिनेमा हाल के अन्दर  सीट  नंबर  तो होता नहीं था, जो पहले प्रवेश किया, उसी के अनुसार अपना सीट लूट लिया,  मजे की बात तो ये थी कि किसी को इसकी शिकायत नहीं थी, इन सब के ये इतने अभ्यस्त थे कि यह सब कुछ इनके लिए एकदम नार्मल था ;

 

खैर, यह सब हो ही रहा था कि जोरों की सिटी  बजी, यह सिनेमा शुरू होने का सिगनल था, कुल तीन सीटियाँ बजती थी, पहली सिटी,  आने वाले  दर्शकों को  एलर्ट करने के लिए, दूसरी सिटी का मतलब था कि शो शुरू हो चूका है और   समाचार दिखलाया जा रहा है, और तीसरी सिटी फ़ाइनल सिटी, मतलब, पिकचर  शुरू हो चूका है ।  

 

फ़िल्म थी "नागिन", की कास्टिंग शुरू हो चुकी थी, सभी ने एक साथ कहा, "बाईस रील", मतलब फिल्म की लम्बाई से था, उन दिनों रील के नंबर से फिल्मों की लम्बाई (लेंथ) का अंदाज देखने वाले कर लेते थे, "बाईस रील" का मतलब था कि फ़िल्म लगभग अढ़ाई घंटे की होगी, मुख्य कलाकार, "प्रदीप कुमार, बैजंती माला, और मुबारक' ................!

 

इसी तरह कास्टिंग आती रही और साथ साथ  दर्शक  फ़िल्म की कास्टिंग के साथ नाम पढ़ते गए और बोलते गए, यह एक तरह से परंपरा सी बन गयी थी ।

 

फिल्म शुरू हो चूका था, ब्लैक एंड व्हाइट में पिक्चर थी, इस फ़िल्म के एक  एक गाने  पहले से ही लोगों की जुबान पर चढ़ चुके थे, खूब आनंद ले ले कर बकोध्यानम सभी देख रहे थे,    

 

एका  एक हाल में  अँधेरा छ गया, अरे यह क्या हुआ ? तभी एक छोटा सा  कैपसन  परदे  पर  दिखलाई  पड़ा, "रुकावट के लिए खेद है", पता चला कि रील टूट गयी है, होता क्या था कि ये  प्रोजेक्टर बड़े पुराने  हुआ करते थे, अक्सर फिल्मों के प्रदर्शन के दौरान बीच बीच में रील कट जाया करती थी, प्रोजेक्टर को चलाने वाले टेक्नेसियन उस रील को प्रोजेक्टर से उतार कर एक स्पेसल सोलुँसन से जोड़कर फिर से प्रोजेक्टर पर चढ़ा कर शो चालू करते, इसमें पांच  मिनट का समय तो लग ही जाता था ।

 

शो फिर से चालू हो चूका था, दर्शक वापस अपने अपने सीट ग्रहण कर चुके थे,  एका एक सभी दर्शक चौंक पड़े, "अरे ई तो रंगीन पिकचर हो गया ब्लैक एंड व्हाइट से", सभी के मूहँ से एक स्वर में यह शोर गूंजा, क्या पिकचर है ? क्या सीन फिलमाया है ? और सभी अपनी अपनी सीट पर एकदम से सीधे बैठ गए, अटेन्सन की मुद्रा में,एकाग्रचित !, लगा कि शायद ऐसा  नहीं करते तो शायद ई रंगीन सीन नहीं देख पाते ।

 

ई बैजंती मलवा तो रंगीनवा पिकचरवा में औरो सुन्दर  हो गयी है", किसी दर्शक के ये उदगार थे  बैजंती माला के प्रति, तभी सेकेण्ड क्लास में किसी दर्शक ने अपने पास वाले बैठे  व्यक्ति से पूछा, "ई गेवा कलर में है कि ईस्टमेन कलर में" ?

 

"अरे चुपचाप फिलिम देखो न, गेवा कलर है कि ईस्टमेन कलर , क्या फर्क पड़ता है तुमको, रंगीन  है कि नहीं,  इसके पहले  देखा था कभी  कौनो पिक्चर रंगीन में"? "जानते वानते तो हैं कुछ नहीं, चले  आते हैं बोकराती  झाड़ने" ?  चुपचाप  देखेंगे नहीं और बकर बकर करते रहेंगे ।

 

इतना बोलने से भी उनका मन नहीं भरा था, उन्हों ने अपने पास वाले बैठे व्यक्ति  से बोला, "सारी फिलिम में ई  बक बक करते रहे हैं, न ठीक से न देखेंगे और न किसी को देखने देंगे, इससे तो अच्छा होता कि हम यहाँ पर बैठते ही नहीं", इतना सुनते ही उन सज्जन की हालत बस देखने लायक थी ।

 

फ़िल्म का सबसे हीट गाना "मन डोले मेरा तन डोले" और व मशहूर   "बीन" की धुन सुननें में सभी मस्त थे कि तभी बड़े जोर से थर्ड क्लास में शोर मचा, शोर क्या मचा, एक तरह से हडकंप मच गई ;

 

क्या हुआ ? क्या हुआ ? की  शोर से सारा हाल गूँज उठा, किसी ने कहा, "अरे सांप दिखा था हमको" ।

 

किसी ने दर्शक दीर्घा से जोर से चिल्ला कर कहा, 'अरे हम तो बोलिए रहे थे इतना मोहक धुन बनाया है ई बीन का कि सुनके साँपों  दौड़ा चला आएगा, अरे ई तो सच्चे कमाल हो गया" ;

 

इतना सुनना था कि ये बात जंगल  की आग की तरह पूरे मेले में फ़ैल गयी कि नागिन फिलिम में बीन की आवाज पर  सिनेमा घर में सांप  घूस आया है अब तो बस पूरे मेले में इसी घटना की चर्चा हो रही थी ;

 

किसी ने पूछा, कै ठो सांप था ?, तो किसी ने जानने की कोशिश की कि कौन सा सांप था, गेहुमन कि करैत ?

 

 ई सांप का  नाम क्या लिया कि अब हाल में  तो भगदड़ ही  मच गयी, सिनेमा के गार्ड और करम चारी पांच पांच   सेल वाली लम्बी टार्छ लेकर चारों ओर रोशनी फ़ेंक फ़ेंक कर सांप को ढूंडने लगे, तभी उनमें  से  किसी एक  को सचमुच एक लम्बा सा सांप दीख  ही गया; 

 

"अरे ई तो ढ़ोरिया सांप है, इसमें कोई जहर थोड़े ही होता है", इतना कह कर उन महापुरुष ने हाँथ से सांप पकड़ लिया और   बाहर जाकर कहीं   दूर फ़ेंक दिया ।

 

बात दरअसल यह थी कि यह  सांप बाहुल्य इलाका था, चारों ओर जंगल और धान के खेत होने के कारण बहुतायत की संख्या में सांप पाए जाते थे, इस घटना के पीछे भी यही बात थी, जहाँ पर मेला लगा था उसके आस  पास का इलाका धान के खेत का था, वर्ष ऋतु समाप्त हो चुकी थी और शरद ऋतु का आगमन हो चूका था, ऐसे में ई ढ़ोरिया सांप जो धान के खेत में पानी में रहता था, वो निकल आया होगा रात्रि सैर के लिए, सांपो को वैसे भी रात में सैर सपाटे में बड़ा आनद आता है, पर बात फ़ैल चुकी थी, ‘सब ने यही सोंचा कि जरूरे नागिन फिलिम के धुन पर ही सांप आया होगा’ ; अनायास ही बिना पैसा खर्च किये फ़िल्म का प्रचार हो गया ।

 

पर इस भगदड़ के बीच भी फ़िल्म चालू रही, सब ने राहत की सांस ली, और पुनः फ़िल्म देखने में मगन हो गए ।  

 

तभी परदे पर एक फ़िल्मी सांप हिरोइन  को दंस लेता है, "अरे अभी एक सचमुच के सांप से निबटे ही थे लो ई फिलिम में तो हीरोइने को  सांप से कटवा के मार दिया, अब क्या ख़ाक देखें सिनेमा, हम तो बैजंती मलवा को देखने आये थे और अब ई हीरोइने मर गयी" ।

 

"अरे क्या बकर बकर कर रहे हो, तुम तो ऐसे बोल रहे  हो कि लगता है तुम ही ई फिलिम का स्टोरी लिखे हो, अभी देखना, हीरो आ के कुछ न कुछ उपाय कर के अपना हिरोइन को बचा लेगा, हिरोइन को मार के किया फिलिम को फ्लाप कराएगा" ?

 

उन महाशय को थोड़ी राहत महसूस हुई, पर वो बोले, "ठीक है देखते हैं, हाथ कंगन को आरसी क्या ? अभी थोडिये देर में पता चल जायेगा" ।

 

तभी बाद वाले महाशय की बात सच दीखती हुई देखी, फ़िल्म का एंड ठीक इसी तरह से होता है, हीरो आता है,  बीन की वही मोहक धुन बजाता है, और जो सांप हिरोइन को दंस कर गया था, वही सांप पुनः आकर वापस हिरोइन को दंस करता है,  बैजंती माला जिन्दा हो जाती है, हिरोइन का बाप जो  एक तरह से विलेन है पिकचर में, वो ख़ुशी  ख़ुशी अपनी बेटी याने बैजंती माला का हाथ हीरो प्रदीप कुमार के हाथ में दे देता है ।

 

फ़िल्म का सुखद  अंत,  सब खुश, दर्शक खुश, पैसा वसूल, सिनेमा मालिक खुश, पिकचर तो सुपर हीट है, पूरा कमाई दे के जायेगा, फ़िल्म निर्माता भी खुश, वाह क्या फ़िल्म बनी और क्या मोहक, मधुर सुन्दर गीत, और सबसे सुन्दर बीन के संगीत का जादू, जिसकी धुन पर सांप भी सिनेमा घर में चले आते हैं ।

 

फिल्म के ख़तम होने के बाद सभी सिनेमा घर से बाहर निकले, भूख के मारे सबके पेट में चूहा दौड़ रहा था, बाबूजी ने पूछा, "खाने के लिए कहाँ चलना है धीरेन" ?

'

जी बड़के भैया, यहीं पास में कैलाश परबत होटल है, सुने है कि वहां का मीट और चावल खूब टेस्टी बनता है, हम उसको पहले से ही बोल के रखे हैं" ।

"ठीक है, सब लोग वही चलो. अब जल्दी से खा पी के घर चला जाये, रात भी काफी हो चुकी है" ।

 

सभी कैलाश परबत होटल की ओर चल पड़े, होटल का मालिक पहले से ही सारा प्रबंध कर चूका था, इन लोगों के लिए बैठने की अलग से व्यवस्था की गयी थी, फेमिली  केबिन में कुर्सियां लगा दी  गयी थी, होटल  के मालिक ने पूछा  कि थाली में परोंसे कि पत्तल में?

 

बाबूजी ने कहा कि पत्तल में ही परोसिये, "क्यों जी पत्तल में खाने का मजा ही कुछ और है, लगेगा कि भोज खा रहे हैं", बाबूजी ने अपनी पत्नी से कहा ।

 

"हाँ हाँ, पत्तले ठीक रहेगा, पता नहीं थाली वाली ठीक से मांजता भी होगा कि नहीं, और पत्तल में खाना अपने आप स्वादिस्ट भी हो जाता है", कौशल्या देवी ने कहा ।

 

सभी के लिए पत्तल सजा दी गयी, होटल के सर्व करने वाले कर्मचारी एक एक कर  खाना  परोसने  लगे, पत्तल में भात परोस दिया गया, उसके ऊपर राहड़ (तुअर) की दाल, मिटटी के चुकिए में मीट (सालन), साथ में आलू मटर का दम, धनिया  और पुदीना कि चटनी,  और  आचार, सलाद पापड वगैरह । सब ने चटखरे ले ले कर भर पेट खाया, खाने का भी रेट थाली के हिसाब से था, प्रति थाली रेट फिक्स था, जितना चाहिए खाइए ।

 

"क्या बढ़िया खाना बनाया है, लगता है कि शादी व्याह के कच्ची का भोज खा रहे हों", बाबूजी ने कहा, सब ने लम्बी ढकार ली ।

 

"चलो अब ऊ बनारसी पान खा कर घर चलें", कौशल्या देवी ने धीरेन को पान की याद दिलाते हुए कहा,  बनारसी पान की दूकान   पर सब ने पान का स्वाद लिया और थाने की ओर बैल गाड़ियों पर सवार होने निकल पड़े ।

 

गाड़ियों का कारवां वापस अपने घर की ओर चल पड़ा, सभी बहुत थक चुके थे, फिर भी मेले की चर्चा सब के जुबान पर थी, कोई सरकस के खेल की तारीफ़ कर रहा था तो कोई ‘मलाई मार के वाली चाय’  की, किसी को कटलेट की याद सता रही थी तो कोई अब तक मीट भात का टेस्ट ले रहा था, सभी बड़े प्रसन्न और खुश थे, उनके मेले भ्रमण का यह प्रोग्राम इतना जो शानदार बीता, सब ने धीरेन की प्रशंसा की ;

 

बाबूजी ने कहा, "मैं ऐसे ही धीरेन  के गुण  थोड़े ही गाता रहता हूँ" ।

 

धीरे धीरे सब ऊंघने लगे, रात का सन्नाटा, सड़क लगभग सुनसान थी, फिर भी नेपाल लौटने वाले मुसाफिर  पैदल सड़क पर स्टेशन जाने के लिए चलते दिखलाई पड़ रहे थे, बैल गाड़ियों की चर मर करती हुई आवाज, बीच बीच में बैलों की घंटी की टनटनाहट !

 

क्या शमां थी, जब ये कारवां घने जंगल से गुजरता, तो भगजोगनी की रोशनी से  जगमगाती सड़क और उस पर झींगुर की आवाज, एक अजीब सी शमां थी जिसे शब्दों में व्यक्त करना दिन में तारे दिखने वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली बात होती  इसे केवल अनुभव किया जा सकता था और कुछ नहीं, बस केवल  एक अनुभव .............?

 

वक्त कब बीत गया, पता ही नहीं चला. अब तो न बाबूजी रहें और न वह  संजुक्त  परिवार, वक्त की गोद में सब धीरे धीरे एक एक कर समां गए, सभी चाचाओं के अपने घर और उनका अलग परिवार, सभी चाचा भी चल बसे थे ।

 

शहर में बिजली १९६० में आ गयी थी, उस बिजली की चमक ने दीयों की चमक को निगल लिया था, अब शहर में सभी बिजली के बल्ब जलाकर दीपावली मना लेते हैं, बस नाम मात्र को खाना पूर्ति के लिए दो चार दीये जला दिए, अब कहाँ वो केले की थम्ब, और वो करची के उपर सानी मिटटी, उस पर जलते  दीये की रौशनी, अशोक के पत्ते की सजावट, सब समय के साथ विलीन हो गए ।

 

और ये मेले, बस नाम मात्र को मेला खाना पूर्ति के लिए अभी भी लगता है, पर अब यह पशु मेला बन कर रहा गया है, शहर की कोई दूकान अब मेला में नहीं जाती हैं, न सिनेमा ना ही कोई नौटंकी, मेले की रौनक समय के बदलते परिवेश में विलीन हो गयी, मेले की बस याद भर शेष रह गयी है संजोगने को.....................................!

 

अब तो केवल यादें रह गयी है, जब कभी नागिन फिल्म के गाने या बीन की धुन सुनता हूँ तो पूरा चलचित्र चल उठता है, जैसे कल की ही घटना हो ?

 

"कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन", किशोरे दा का गाया हुआ यह दर्द भरा गीत कितना साकार हो उठता है !

 

काश और वो लम्हें ............................................................. ! ! !

 

"रंजिश ही सही, दिल को दुखाने के लिए आ" ।

 

 

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