



ललित निरंजन द्वारा रचित कविता - कहानियां - संगीत
एवं स्वादिस्ट व्यंजन



रामधारी सिंह दिनकर
जब वो नहीं रही ?
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जब तक वो साथ थी
सवेरा था, दिन था, रोशनी थी
सब कुछ था,
पर
वो अब नहीं रही..............?
अचानक शाम हो गयी, कोहरा और अँधेरा ?
इतना घना अँधेरा, कि अब तो पता भी नहीं
कैसे कटेगी कटेगी कैसे
ये रातें लम्बी ज़िन्दगी की.................?
सवेरा तो बहुत दूर, बहुत दूर जा चूका था .........?
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“अनुभूति
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एकाँत के एक छँड़ में
ज़िन्दगी के हर बीते पल की ओर
आज सहसा ही धयान खीँच जाता है
और तभी होती है एक
“अनुभूति””
क्या हमने हर पल की गलती ही गलती
बीत गई सारी ज़िन्दगी यूहीँ जोड़ तोड़ मेँ
क्या बोया कया सीँचा क्या खोया क्या पाया
कुछ भी ना तो साथ जाएगा
बँद मुठ्ठी आया था खाली हाथ जाउँगा
बिदिम्बना की मन्हस्थिति मे, अंतर्मन की द्वन्द मेँ
तभी एक ढी्ढ़ निशचय करते हैँ जीवन को पुनः तलाशने की
जीवन को पुनः समझने की तब होती है एक नई
“अनुभूति”
सद कार्य ही शायद सही कर्म है जिनदगी का
पुनः ढी्ढ़ निशचय करते हैँ
आने वाला अब शेष हर पल बीतेगा सद कार्य
पर
नियति को तो और ही कुछ मँजूर था
बीत गई सारी ज़िन्दगी यूहीँ तलाश मॆँ
और स्वं को हम पाते हैँ
ज़िन्दगी के अँतिम पल मेँ
तब तक हर पल कुछ भी करने का
बीत चुका था
पुनः होती है एक अतिँम “अनुभूति’
‘काश’
आयी होती सही समय पर वह सारी “अनुभूति
__________________________”
!!"शून्य"!
ब्रहमांड ही शून्य है
अनन्त ही शून्य है,
शून्यता भी तो शून्य है
सम्पूर्णता भी तो शून्य ही है I
! बिंदु !
हाँ है बिंदु सूक्ष्मतम आकार पदार्थ का
मिलाकर ही इन अनगिनत बिन्दुओं को
होता है निर्माण
रेखाओं का
मिलाकर इन अनगिनत रेखाओं को,
होता है निर्माण
पदार्थों का
सूक्षतम रूप है अणु, पदार्थ का
बिम्ब प्रतिबिम्ब हैं
अणु, बिंदु
होते रहते हैं जो प्रवाहित अनन्त में
अनन्त ही तो आखिरतः शून्य है
कहते हैं
योगी और ज्ञानी, दुनियां है फानी
अंतर्धयान लगाकर मन की आँखों से
करोगे जब तलाश ईश्वर की
प्रथम दृश्य आकाशमय सा दिखेगा
प्रवाहित होती रहती हैं तरंगे इनसे
है तत्पशात,
अनन्त प्रकाश, केवल प्रकाश
अंततः समाधिस्त अवस्था में
रह जाता है साथ
आकाशरुपी ब्रहमांड, आकाशरुपी ब्रहमांड
यह ब्रहमांड ही तो
शून्य है, शून्य है, शून्य है
कहते है हम "सत्यम, शिवम्, सुन्दरम"
शिव ही सत्य है, शिव ही सुंदर ह
जीवन, शिव से ही आता है
अंततः शिव में ही समा जाता है
शिव ही सम्पूर्णता का द्योतक है
सम्पूर्णता ही शून्य है
हाँ
जीवन भी तो आखिर
शून्य ही है, शून्य ही है, शून्य ही है I
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!… .”काश होता मैं”…………!
काश !
होता हर पल मेरा, बारिश की एक एक बूँद
टपकता रहता बिना किसी चाह के, खोता रहता धरती की गोद में !
काश !
होता मैं उस गुलाब की तरह, किसी बगिया में फूलों के बीच
बिखेरता रहता अलग रंग अपना और खोता रहता सूरज की रोशनी में !
काश !
होता चीड का दिल मेरा, काश्मीर की वर्फीली वादियों में
खड़ा, मजबूत, अडिग, अटल, फिर खो जाता वर्फ की सुनहरी गोद में !
काश !
होता मैं आकाश में, टिमटिमाते हुए इक तारे की तरह,
बिखेरता रहता प्यार का प्रकाश सदा, प्यार का प्रकाश सदा,
और खोया रहता बस यूहीं प्यार और बस प्यार में ! ! ! !
काश !
रखा होता यदि, मैंने आस्था और विश्वाष ईश्वर में
उसने अवश्य की होती मदद मेरी ! !
होता मैं इंसान एक अच्छा, करता रहता सेवा निरंतर
उन जरूरतमंदों की, जिन्हें नहीं नसीब दो जून की रोटी भी
चलो, विलम्ब से ही सही,करते हैं शुरुआत
आज और अभी से, देर किस बात की……………?
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‘व्हॉट इज़ द ट्रू लव’ ?
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अक्सर पूछा जाता है एक प्रश्न ?
वह भी अंग्रेजी में ‘व्हॉट इज़ द ट्रू लव’ ?
अब हम तो ठहरे हिंदुस्तानी ठेठ
‘ट्रू लव’ क्या जाने ? क्या होता है सच्चा प्यार ?
फिर भी एक कोशिश तो कर ही डाली हमने इसे समझने में
टेक्नोलॉजी के इस दौर में दाग ही डाला गूगल पर
अंग्रेजी में यह प्रश्न ‘व्हॉट इज़ द ट्रू लव’ ?
दाद देनी होगी, क्या चीज है गूगल भी?
एक नहीं, सैकड़ो नहीं, हज़ारों हज़ारों की संख्या में
परिभाषा और व्याख्या, ‘ट्रू लव’ की’ पूरे दुनियां से खोजकर
डाल चुके थे गूगल महाशय ने बस ‘मिली सेकेण्ड’ में कम्प्यूटर के पटल पर ?
जिस शब्दों को समझने में हमने पूरी की पूरी
व्यतीत कर डाली थी ज़िन्दगी, वह तो हमारे सामने
कम्प्यूटर के पटल पर चीख चीख कर कह रहा था,
हमें पढ़ो, हमें पढ़ो, हम हैं ‘ट्रू लव’ ? ‘ट्रू लव’ ? ‘ट्रू लव’ ?
जिज्ञासा और भी प्रवल हो चुकी थी मेरी ?
सच्चे प्यार को जानने समझने के लिए ?
बहुत खोज, रिसर्च, अध्ययन के उपरांत अंततः,
‘व्हॉट इज़ द ट्रू लव’……….. ?
“एक अहसास है सच्चा प्यार,
मिश्रण है अनेक भावनाओं का सच्चा प्यार
पारस्परिक स्नेह से लेकर खुशी की ओर तक विस्तारित है सच्चा प्यार।
मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है सच्चा प्यार ।
कहते हैं कि अगर प्यार है सच्चा, बदल जाती हैं ज़िन्दगी हमारी ।
जूट जाते हैं हम ईश्वरीय प्रेम से, और फिर……………?
एक नया एहसास, एक नया अनुभव, एक नयी अनुभूति …….!
बदल जाती है सोच हमारी, बदलने लगते हैं रिश्ते सारे .!
छंठ जाते हैं मन के धुंध, सारे के सारे…..!
और फिर
करने लगते हैं हम, सच्चा प्यार सभी से, सभी से ………………!
यही है फलसफा, यही है दर्शन, है यही जीवन की सच्ची परिभाषा………..!”
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ललित निरंजन
"त ला श"
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ज़िन्दगी
है एक छलावा, एक धूंद, एक भूलावा
ज़िन्दगी
है, सारी की सारी, एक भटकन
कभी ना ख़त्म होने वाली, एक तलाश
सदियों से मानव जन्म लेता रहा
मृत्यु की गोद में सोता रहा
एक पीढ़ी, अंत के इंतज़ार में
दूसरी पीढ़ी, जन्म के इंतज़ार में
सब कुछ
बस यूहीं चलता रहा, सिर्फ चेहरा बदलता रहा
कब ख़त्म होगी यह तलाश, कब छटेंगे ये कोहरे
कब होंगे फिर सवेरे, कब होगा फिर प्रकाश..?
क्या ?
कभी कुछ बदलेगा, या यूहीं
सारी ज़िन्दगी भटकता रहेगा मानव
हाँ
अब तक की तो, यही है नियति
प्रकृति अभी तक तो,यही है कहती
क्या ?
यही कहानी यूहीं दोहराती रहेगी
पीढियां दर पीढियां यूहीं ख़त्म होती रहेगी
पर, शायद वक्त एक ऐसा भी आयेगा,
पृथ्वी सारा आकाशमय हो जायेगा
तब ???????
और कुछ नहीं, और कुछ नहीं,
बस "शून्य शून्य और शून्य" रह जायेगा
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? “जीवन है हलचल और परिवर्तन” ?
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क्या है सही ? है क्या गलत ?
कौन है दोस्त ? है कौन दुश्मन ?
कौन है अपना ? और कौन पराया ?
क्या है पाप ? क्या है पुण्य ?
पुत्र, जो था परेशान इन बड़ी द्विधाओं में ,
सहसा अपने पिता से प्रश्न यह कर ही डाला...........?
‘पिता’,
ठहरा ग्रीहस्थ आदमी,
दो जून रोटी की समस्या, और उसकी व्यवस्था,
था, उसका परम धर्म और कर्तव्य ?
सारी ज़िन्दगी जिसने की व्यतीत, दो से चार, चार से आठ करने में,
पाया अपने को आज गहरी मुसीबत में ?
स्वॅम को बिलकुल ही लाचार पा रहा था आज वह ?
फिर भी हिम्मत जुटाई, और पूछा अपने पुत्र से ?
क्यों ? आवश्यक है क्या इसका उत्तर जानना ?
हमारे पुरखों में से तो कभी भी किसी ने नहीं उठाया यह प्रश्न ?
फिर आज अचानक ? यह क्या हो गया है तुम्हारी मति को ?
आज तुमने पूछ डाला कुछ इस तरह यह प्रश्न मुझसे
जैसे कभी श्वेतांक ने पूछा था ? महाप्रभु रत्नांबर से
“!…… .और पाप ?...............!’’
एक गहरी निद्रा से चौंक उठे थे तब महाप्रभु रत्नांबर
बड़े ही ध्यान से देखा था श्वेतांक की ओर उन्होंने
और कहा, प्रश्न है स्वाभाविक हे वत्स ? पर साथ ही बड़ा कठिन ?
क्या है यह पाप......... ? कहाँ है इसका निवास........?
अविकल परिश्रम करने के बाद,
अनुभव के सागर में उतराने के बाद
भगवती चरण वर्मा जैसे महापुरुष ने,
लिख डाली थी एक अति अविस्मरणीय पुस्तक 'चित्रलेखा'
फिर भी सुलझा न पाये पाप और पुण्य की परिभाषा ?
बनी रही असमंजस की स्तिथि अंत तक ?
श्वेतांक ने तो एक ही प्रश्न पूछा था, महाप्रभु रत्नांबर से ?
पर यहाँ तो तुमने एक ही साथ कितने प्रश्न कर डाले हैं
जानना ही चाहते हो इन प्रश्नों के उत्तर यदि तुम,
तो तुम्हें स्वॅम ही ढूँढ़ना पड़ेगा और इसी संसार में ......!
संभव है, शायद तुम पता लगा सको
अपने अंतर्मन में उठे प्रश्नों के उत्तर को ?
हे पुत्र ..........?
सम्भव है कि संभवतः उठी होगी ऐसी जिज्ञासा पहले भी
पर.......................? समाधान..............?
किसी ने भी तो नहीं दी अब तक?
फिर भी,
अनुभव मैं अपना अवश्य बतलाऊंगा आज तुम्हें..................!
मनुष्य जो भी करता है, वह उसके अपने ही स्वभाव का प्रतिबिम्ब है ?
और स्वभाव ?
यह एक प्राकृतिक अवस्था का द्योतक है उस छण ?
परिस्थितियों का दास है मनुष्य, विवश है मनुष्य ?
मनुष्य अपना स्वामी नहीं कर्ता भी नहीं ?
है केवल है वह साधन मात्र ...... साधन मात्र ?
फिर
क्या है सही ? है क्या गलत ?
कौन है दोस्त ? है कौन दुश्मन ?
कौन है अपना ? और कौन पराया ?
क्या है पाप ? क्या है पुण्य ?
हे पुत्र ................!
मनुष्य अंततः सुख और केवल सुख चाहता है ?
पर उसके केंद्र अलग अलग हो सकते हैं ?
किसी को सुख धन में दीखता है, तो किसी को मदिरा में ?
? ? ? ? ? ?
किन्तु निर्विवाद है एक ही सत्य, प्रत्येक व्यक्ति चाहता तो है केवल सुख ही सुख ?
यही मनुष्य की मनः प्रवृति है उसकी दृष्टिकोण की विषमता।
और.......!
पाने की उसकी यह चाहत, उसकी तलाश ? है प्रबल कारण समस्त दुखों का.............?
और संभवतः उत्तर है तुम्हारे सभी प्रश्नों का........?
और अंत में………………..?
हे पुत्र,
जीवन है हलचल और परिवर्तन ?
नहीं है कोई स्थान सुख और शांति का, इस हलचल तथा परिवर्तन में ?
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वृद्ध दिवस
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मैंने सहसा देखा रात्रि ८ बजे एक अक्टूबर २०१५ को
अरे आज मनाया जा रहा है वृद्ध दिवस समस्त संसार में
मैं ७२ + का हो चला हूँ पर किसी ने मेरी सुध तक न ली,
एक अनायास चिंता मन में घर ली, ये क्या हो रहा है?
क्यों किसी ने मेरी सुध नहीं ली, क्यों किसी ने हेलो तक नहीं कहा ?
एक प्रश्न उठा मेरे मन में “वृद्ध किसे कहते हैं?
सर्व प्रथम वृद्ध की परिभाषा तलाश की जाये?
आज के परिवेश में दादी, नानी, गुरु सब गूगल ही तो है,
यह तो अच्छा हुआ की मैंने कम्प्यूटर सीख लिया था
अन्यथा कौन देता मेरा मन की इस जिज्ञासा का हल,
खैर, मैंने कम्प्यूटर ओपन किआ और गूगल महाशय
को दाग दिया यह प्रश्न वृद्ध किसे कहते हैं ?
अब तो महाशय मत पूछिए?
भिन्न भिन्न प्रकार की परिभाषाएं?
६५ वर्ष की आयु को अधिकांश देशों ने
आधार बनाया वृद्धावथा प्रारम्भ होने की
पर ६० + को कट ऑफ़ उम्र मान लिया
यू एन असेंबली ने सर्व सम्मति से ?
बात एक समझ में आ गयी कि किसे
भी नहीं पता कि वृद्ध किसे कहा जाये?
तो फिर?
यक्ष का वही प्रश्न "क्या मैं बुढ्ढा हूँ?
नहीं, मैं तो कभी बुढ्ढा हूँगा ही नहीं
ये शरीर छोड़ सकता है साथ पर मन नहीं
ये मन जिस दिन सोचना छोड़ देगा
उस दिन शायद मैं बुढ्ढा हो जाऊँगा?
पर अभी नहीं, अभी नहीं, कभी नहीं
अभी तो मैं जवान हूँ,
अभी तो मैं जवान हू
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जीवन और मृत्यु?
क्या है पहचान जीवन और मृत्यु का?
है प्रश्न बड़ा ही कठिन....?
इंसान है जीवित जब तक, है कोमल और कमजोर तब तक
वही इंसान जब है मृत, तब है सूखा, कड़ा और मुरझाया हुआ
ठोस, दृढ़, सख्त, कठोर और कड़ापन........?
है साथी और पहचान
मृत जीवन का..!
पर, कमजोर और कोमलता............?
है पहचान और साथी जीवित जीवन का.!
एक मजबूत वट वृक्ष भी है कमजोर
एक ठोस कुल्हाड़ी के सामने......!
पर यह विडिम्बिना ही तो है
है जो मजबूत और बड़ा, लेता है वह स्थान निम्नतर
पर है जो कोमल और कमजोर
लेता है वह स्थान उच्चस्तर
संभवतः, शायद?
है पहचान यही जीवन और मृत्यु का
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“काल चिंतन”
समय
किसके रूका है ? कौन रोक पाया है ?
वह तो
अनवरत चलता रहता है सब कुछ बदलता रहता है I
जिसको है पहचान
समय की वही बांध पाता है
कभी कभी उसकी चक्की I
पर वह भी हर वक्त बांध नहीं पाता है
समय उसे भी अपने साथ लिए
इसी तरह बहा ले जाता है I
समय
अनवरत चलता रहता है सब कुछ बदलता रहता है I
पर
वक्त एक ऐसा भी आता है
अपने में ही वह सब सिमेट लेता है I
साँस थम जब जाती है
कुछ पल के लिए वह खुद ही ठहर जाता I
पर
इस पड़ाव के तुरत बाद वह
फिर चलता रहता है सब कुछ बदलता रहता है I
समय
अनवरत चलता रहता है सब कुछ बदलता रहता है I
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"कलियुगी इन्सान"
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चारों और है भूखमरी हर और है लूट मची
भ्रस्टाचार का नज़ारा है दंगा फसाद ही जब नारा है
नायितकता का मोल कहाँ मनुष्यता का मोल कहाँ
यह सब किताबी बातें हैं सिर्फ कथा में बांचें जातें है
इन्सान का है मोल कहाँ सब बिकते टेक भाव यहाँ
चौपाये दोपाये अब फर्क कहाँ बची नहीं आँखों में जब हया यहाँ
क्या परिभाषा है इस दलनीति की ? क्या अभिलाषा है इस कूटनीति की ?
क्या मंशा है इस राजनिती की ? क्या भविष्य है गाँधी के इस देश की ?
कैसी होगी कल की इन्सान नहीं किसी को इसकी पहचान
सभी किसी को अपने ही फेरे खड़े हैं हर ओर कुर्सी को घेरे
अब तो सब को लगी है एक ही होड़ लूट कर निकल जाने की भागम दौड़
कौन कितना आज बटोर ले पाता है वही कल का सफल इन्सान कहलाता है
वाह वाह रे हे कलियुगी इन्सान !
शत शत बार तुम्हें प्रणाम !
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
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तेरी याद मॆँ पिये
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चाहा इस जीवन में केवल तुमहें
चूमाँ तेरी पलकोँ मेँ तुमें ही तुमहें
दिल की हर धडकऩ पर मन की हर तरँग पर
चाहत के हर रंग पर सॉसों के हर सॉस पर
सदा तुम ही थिरकती रही केवल तुम ही मुसकाराती रही
हर पल तुम ही गुनगुनाती रही हर छँड़ तुम ही तुम छाती रही
जिनदगी क॓ दिऩ यॄहीँ बीतते रहे हम एक दूसरे मेँ यॄहीँ खोते रहे
दुनियॉ की सुध हमें कहाहमारी सुध दुनियॉ को कहाँ
कब सुबह से शाम हो गई कब दिन ढल गया रात हो गई
कब महीनों बीत गए सालेँ गुजर गई कब सारी जिनदगी यॄहीँ बीतती गई
"तभी एक एहसास;"
एक छँड़ ऐसा भी आएगा जिनदगी मॆं एक ठहराव आएगा
झुक झुक कर जब हम चलेँगें धुधँले धुधँले से दीखेंगेँ
रूक रूक कर बातें हम करेगें एक दूसरे को यॄहीँ तकते रहेगेँ
उनहीँ यादोँ के सहारे जीते रहेगेँ जिन यादोँ मेँ जीते रहे थे
शेष वकत भी जिनदगी का पियॆ तेरी आगोश मॆँ यॄहीँ बीत जाएगा
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"छोटा सा दिल"
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कितना विचित्र होता है यह छोटा सा दिल
कभी जून की तपती दुपहरी में पसीने से भीगते बदन को
ठंडक पंहूचाहने को पानी के लिए तरसता रहता है यह छोटा सा दिल
कभी सावन की झड़ी में तनहाई भरी रातों में अपने पिया से मिलने को
तरसता रहता है यह छोटा सा दिल
कभी जाड़े की कंपकंपाती ठण्ड में ठिठुरते बदन को उष्णI पहूँचाहने के लिए
तरसता रहता है यह छोटा सा दिल
पर
है शायद यह मृगतृष्णा मेरे इस छोटे से दिल की
जो सारी ज़िन्दगी यूहीं`
रखेगा मुझे अपनी भूल भूलैया में
सच कितना विचित्र होता है
यह छोटा सा दिल
सारी ज़िन्दगी यूहीं हर वक़्त भटकता रहेगा
जब तक धड़कता रहेगा “यह छोटा सा दिल”
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ललित निरँजन
चौराहे के बीच
ज़िन्दगी के अंतिम छण में चैराहे के बीच
खड़ा हर एक इन्सान है पड़ा सोच में
पहला मोड़ बचपन का यूँ हीं खेल कूद में बीत गया
दूसरा मोड़ जवानी का जवानी के नशे में बीत गया
तीसरा मोड़ जोड़ तोड़ का यूँ हीं तोड़ जोड़ में बीत गया
अब यह अंतिम मोड़,
लगता है सारी ज़िन्दगी बस यूँ हीं बीत गया
अब तो बस ऊपरवाले का ही आसरा है,
हाथ उठाकर चौराहे के बीच केवल उसी को पूकारते हैं
तब तक शायद देर बहुत हो चुकी है
पुकारने तक की शक्ति भी पास न रह जाती है
टुकुर टुकुर केवल उसी को देखते हैं
मन ही मन ज़िन्दगी के अंत होने दुआ की करते हैं I
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“ललित निरंजन”
बारूद के ढेर पे
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ज़िन्दगी का हर एक पल
आज गुजरता है बारूद के ढेर से
किस पल किसकी ज़िन्दगी होगी धवस्त
नहीं किसी को मालूम
फिर क्यों रोना गाना और चिल्लाना
हर पल ज़िन्दगी को धिक्कारना
क्यों बटोरने और बटोरने की लालच
क्यों भागने की लगी है होढ़
क्या बारूद के ढेर से आगे निकल जाने को
पर आगे भी तो चारों ओर है बारूद ही बारूद
फिर कहाँ है इस ज़िन्दगी की मँजिल ?
कितना बेबस है रे तू इनसान
जो फँस गया है बारूद की इस भूल भूलैया मेँ
उठ हिम्मत कर बिस्फोट कर दे बारूद के ढेर में
निकल ले सुगम रास्ता दिखा मंजिल उन्हें
भटकें फिरे हैं जो बारूद की इस भूल भूलैया में
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“ललित निरँजन”
"सोलवीं गाँठ" ( १३ मई १९८१ )
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कुछ यादें कुछ पल
वो तारीख वो सन
हर वक्त याद हमें रहता है
पल पल दिल के पास रहता है
वो तारीख तेरह मई उन्नीस सौ पैंसठ की थी
हर ओर उमंग ही उमंग थी, शादी की तरंग ही तरंग थी
सजी सजाये लजी लजाये , घूँगट में तुम मुखड़ा छिपाए
सुर्ख लाल जोड़ों में लिपटी लिपटाए, मेरी आँखों में तुम ही तुम समां रही थी
माता - पिता सगे - सम्बन्धियों के बीच
प्रज्वलित अग्नि की परिधि में पवित्र मंत्रोच्चारण के बीच
बंधते गए हम अटूट बंधन में,
उसी पावन दिवस की है वर्ष गाँठ
बंधने को है आज सोलवीं गाँठ
कितने झरने इस बीच बह चुके
दो से चार हो हम चुके
मेरी शुभकामनाएं तुम करो स्वीकार
सींचती रहो इस बगियाँ को यूहीं तुम सदा
हंसती और मुस्कुराती रहो यूहीं तुम सदा I
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अपने पिता का प्यार है बेटी
अपने पिता का प्यार है बेटी
अपने मां की लाडली है बेटी
ईश्वर की सबसे प्यारी सौगात है बेटी
संगीत की झंकार, जैसी होती है बेटी,
प्यार और खुशियों का नाम है बेटी
समुद्र में से निकले सीप की मोती है बेटी,
ज़िन्दगी की हर एक मुस्कान है बेटी
इस पुण्य बेटी दिवस पर
न्योछावर है मेरा सारा प्यार भरा स्नेह,
और आशीर्वाद सभी बेटियों को,
ईश्वर से यही दुआ करता हूँ की
भर दे खुशियों से उनकी झोली को,
सदा खुश और आबाद रहें मेरी सभी बेटियां
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मेरे
७६ वीं जन्म दिन पर
एक अनुभति, एक एहसास
और कुछ उदगार,
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आज सुबह जब व्हाट्सएप्प खोला
तो ज्ञात हुआ
अरे आज तो मेरा जन्म दिन है
और मैं कब ७६ वीं पूरी कर
७७ वीं में प्रवेश कर गया,
पलक झपकते कब हो गया यह?
पता भी नहीं चला,
पर भला हो मेरे अपनों सभी का
जिन्हों ने टेक्नोलॉजी की इस नए दौर में
व्हाट्सएप्प के माध्यम से
मुझें मेरे जन्म दिन की याद दिलाई
और मुझें मेरे जन्म दिन
पर दी हार्दिक वधाईयां
और किया मेरा अभिनन्द I ˋ
अच्छा लगा यह सब देख कर
और अनुभव कर कि सही में
अपनों को कम से कम एक बार तो
वर्ष में याद कर ही लेते हैं
मेरी ओर से उन सभी को
मेरा आशीर्वाद सहित धन्यवाद
पर एक छण आज इस जन्म दिन की
घडी में कुछ एक पल के लिए
मन कही विचलित हो उठा
उन्हें याद कर जो अपने सर्व प्रिय थे
आज न जाने कहाँ खो गए,
मन दुखी हो चला इस वेदना से
सहसा नेपथ्य कहीं से एक आवाज आयी,
जो चले गए उन्हें याद कर लो
जो अपने सभी हैं इस धरती पर
न्योछावर कर दो अपना
सारा प्यार और आशीर्वाद उन पर
इस असीम उम्मीद पर कि
अपने जीवन में एक वे अच्छा इंसान बनें
और करे ऊँचा और ऊँचा अपने
इस परिवार की उंचाईओं को
जिन्हें हमारे अपने पुरखों ने
सींचा और बड़ा किया I
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जब चाँद का धीरज टूट गया
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जब चाँद का धीरज टूट गया
वो प्रभु राम से रूठ गया
और बोला
रातों को आलोकित मैंने किया है
स्वयं शम्भू ने मुझे अपनी जटाओं में स्थान दिया है
याद करो जब सिया वियोग में आप रातों में रोते थे
एक हम ही थे आपके साथ जागते होते थे I
गर हम ना होते तो इंतेज़ार करना पड़ता संजीवनी के लिए सुबह तक
कितना महँगा पड़ता ये इंतेज़ार यह आप भी जानते थे
पूरा भारत वर्ष खुशियाँ है मनाता आपके घर लौटने की खशी में
पर में अभागा चाँद शामिल नही हो पाता. इस खुशियों में
इतना कठोर व्यवहार आपने क्यों किया मेरे साथ
किस कसूर की इतनी बड़ी सजा दे डाली मुझे सदा के लिए?
तभी कहा प्रभु श्री राम ने
हे चाँद प्रिये हो तुम सबसे मुझे
नजर ना लग जाये कहीं किसी कि तुम्हे
इसलिए छुपाकर मैं रखता हूँ तुम्हें सदा अपने ह्रदय में
जहाँ तुम बिखेरते रहते हो शांति और शीतलता
सदैव मेरे तन - मन में
“The Last Teen"
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The very fine morning My wife wished me
“Happy day of our marriage anniversary”
Amazed, Exclaimed, Overjoyed I with a smile asked “The Nineteenth one”
Joy disappeared for a moment and, We, looked old in our own eyes,
Our children under, teen, were sitting And playing in front of us
I, then pointing towards them, Holding her in my arms, said
Look at our teen age kids Growing young, looking fresh like a flower
Our marriage, too is like them, - Now growing young, and looking fresh like a flower
It is our last teen
Come, Let us celebrate and say good bye to
"The Last Teen"
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Lalit Niranjan
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