



ललित निरंजन द्वारा रचित कविता - कहानियां - संगीत
एवं स्वादिस्ट व्यंजन



रामधारी सिंह दिनकर
क्या है कविता
जब कवि "भावनाओ की प्रसव" से गुजरते है तो कवितायेँ प्रस्फूटित होते है।
कविता क्या है
हाथ की तरफ , उठा हुआ हाथ
देह की तरफ झुकी हुई आत्मा
मृत्यु की तरफ़ घूरती हुई आँखें
क्या है कविता
कोई हमला हमले के बाद पैरों को खोजते
लहूलुहान जूते नायक की चुप्पी विदूषक की चीख़
बालों के गिरने पर नाई की चिन्ता
एक पत्ता टूटने पर राष्ट्र का शोक
आख़िर क्या है क्या है कविता ?
मैंने जब भी सोचा
मुझे रामचन्द्र शुक्ल की मूछें याद आयीं
मूंछों में दबी बारीक-सी हँसी
हँसी के पीछे कविता का राज़
कविता के राज पर
हँसती हुई मूँछें !
(भारत-दर्शन::इंटरनेट पर विश्व की सबसे पहली ऑनलाइन हिंदी साहित्यिक पत्रिका के सौजन्य से)
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कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं। वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत नहीं पड़ती। कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है। यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं। कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है।
हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है।
कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मण्डल से ऊपर उठा कर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरुप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है, इस भूमि पर पहुंचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोक-सत्ता में लीन किये रहता है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है। इस अनुभूति-योग के अभ्यास के हमारे मनोविकार का परिष्कार तथा शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह होता है।
जिस प्रकार जगत अनेक रूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक-भावात्मक है। इस अनेक भावों का व्यायाम और परिष्कार तभी समझा जा सकता है जब कि इन सबका प्रकृत सामंजस्य जगत के भिन्न-भिन्न रूपों, व्यापारों या तथ्यों के साथ हो जाय। इन्हीं भावों के सूत्र से मनुष्य-जाति जगत के साथ तादात्मय का अनुभव चिरकाल से करती चली आई है। जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदिम युगों से ही परिचित है, जिन रूपों और व्यापारों को सामने पा कर वह नरजीवन के आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ मूल या सीधा सम्बन्ध है। अतः काव्य के प्रयोजन के लिए हम उन्हें मूल रूप और मूल व्यापार कह सकते हैं। इस विशाल विश्व के प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष और गूढ़ से गूढ़ तथ्यों को भावों के विषय या आलम्बन बनाने के लिए इन्ही मूल रूपों में और व्यापारों में परिणत करना पड़ता है। जबतक वे इन मूल मार्मिक रूपों में नहीं लाये जाते तब तक उन पर काव्य दृष्टि नहीं पड़ती
मनुष्य जब किसी ऐसी परिस्थिति से गुजरता है जहाँ उसकी आत्मा झंकृत होकर उस विषय वस्तु पर सोचने के लिए वाद्य हो जाती है, वैसी परिस्थिति में वह कुछ कहना चाहता है, उसकी यही चाहत कविता के रूप में विकसित होकर अंतरमन से वाह्य जगत को प्राप्त होती है, कविता के अनंत रूप हैं, और मैं तो यहाँ तक मनाता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर एक कविता विद्यमान है, बस उसे तलाशने और संवारने की आवश्यकता है
कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है और उसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है जिनके द्वारा यह लोक देवलोक और मनुष्य देवता हो सकता है।
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